Tuesday, November 9, 2010

''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` नवीन धारणाओं का शोधपूर्ण दस्तावेज --जयपकाश वाल्मीकि

समयांतर अक़्र्तुबर २०१०

पुस्तक समीक्षा

''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` नवीन धारणाओं का शोधपूर्ण दस्तावेज।

जयप्रकाश वाल्मीकि

श्री संजीव खुदशाह दलित रचनाकार है। इस पर भी वे इस समुदाय पर एक शोधकर्ता रचनाकार के रूप में पहचाने जाते है। उनकी यह पहचान पूर्व में लिखी उनकी पुस्तक -'सफाई कामगार समुदाय` के कारण बनी। और अब यह पहचान और भी ज्यादा पुष्ठ हो गई हे। चुकि इस कड़ी में हाल ही में उनकी नवीन पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` एक शोधपूर्ण आलेख (दस्तावेज) है। पिछड़े वर्ग को लेकर समाज में जो मिथक बने हुए थे लेखक ने उससे अलग हट कर वास्तविकताओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है।

पुस्तक की शुरूआत मानव उत्पत्ति पर विचार करते हुए की गई है। श्री खुदशाह ने इस हेतु धर्मशास्त्रों में मानव उत्पत्ति को लेकर की गई व्याख्यापित मान्यताओं को सम्मलित किया है। हिन्दूधर्म ग्रन्थों के, ईसाई धर्म, (सृष्टि का वर्णन) मुस्लिमधर्म (सुरतुल बकरति, आयात सं.-३० से ३७) को भी उद्घृत कर अंत में वैज्ञानिक मान्यताओं के अंतर्गत स्पष्ट किया है कि मानव उत्पत्ति करोड़ो वर्ष के सतत विकास का परिणाम है। लेखक ने मानव उत्पत्ति की धर्मिक अवधारणाओं के साथ-साथ पूर्व की वैज्ञानिक अवधारणाओं को भी तोड़ा है। जैसे कि डार्विन का मत था कि माानव की उत्पत्ति वानर(बंन्दर) से हुई। हालाकि मानव उत्पत्ति से पहले अध्याय की शुरूआत रोचक और ज्ञानवर्धक है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को जिस तार्किक और तथ्यपूर्ण ढंग से लेखक ने पाठकों के समक्ष रखा है। वह विषय में पाठकों को एक नई दृष्टि देते है। फिर भी ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` पुस्तक की शुरूआत अगर मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को सुलझाते हुए नही भी की जाती तो भी पुस्तक का मूल उद्देश्य प्रभावित नही होते। चुंकि भारत में जातिय प्रथा होने के कारण मानव का शोषक या शोषित होना या शासक या शासित होना यहां की धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण है। इसलिए भी पुस्तक के विद्वान लेखक श्री संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए हिन्दूधर्म शास्त्रों, स्मृतियों सहित कई विद्वान जनों के मतों को खंगाला और उसे उद्धृत किया है।

चार अध्यायों में समाहित श्री संजीव खुदशाह की यह पुस्तक पिछड़े वर्ग से संबंधित अब तक बनी हुई अवधारणाओं, मिथक तथा पूर्वाग्रह जो बने हुए है उनकी पड़ताल कर पाठकों के सामने तर्क संगत ढंग से मय तथ्यों  के वास्तविकताएं रखती है। जैसे आज के पिछड़े वर्ग हिन्दू धर्म के चौथे वर्ण ''शूद्र`` से संबंधित माना जाता है। किन्तु श्री संजीवजी के शोध प्रबंध से स्पष्ट यह  होता है कि आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग मूलरूप् से आर्य व्यवस्था से बाहर के लोग है। शूद्र वर्ण के नहीं। यह अलग बात है कि बाद में इन्हे शूद्रों में समावेश कर लिया गया। विद्वान लेखक ने इसे स्पष्ट करने से पूर्व शूद्र वर्ण की उत्पत्ति और उसके विकास को रेखांकित किया है। उनके अनुसार आर्यों में पहले तीन ही वर्ण थे। लेखक ऋग्वेद, शतपथ ब्राम्हण और तैतरीय ब्राम्हण सहित डॉ. अम्बेडकर के हवाले से कहा है कि यह तीनों ग्रन्थ आर्यो के पहले ग्रन्थ है और ये केवल तीन वर्णो की ही पुष्टि करते है।(पृष्ठ-२६)

वैसे ऋग्वेद के अंतिम दसवें मंडल के पुरूष सुक्त में चार वर्णो का वर्णन हे किन्तु उक्त दसवे मंडल को बाद में जोड़ा हुआ माना गया। अधिकांश विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद की यह दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया। क्रिथ के अनुसार यह कार्य १०००-८००ई. वी. पूर्व में हुआ। भाषा विद्वानों ने कहा -'इसकी भाषा, प्रयोग तथा व्याकरण पूर्व के मंडलों से सर्वथा भिन्न है।` (पृष्ठ-३६)

शूद्रों के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए श्री खुदशाह ने दोहराया कि सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियां अनार्य थी। जो आज हिन्दूधर्म की संस्कृति को संजाये हुए है। क्योकि कोई ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन सूचियों में (अनुलोम (स्पर्शय) प्रतिलोम (अस्पर्शय) संतान की सूचियां, जिसे लेखक ने पृष्ठ २८-२९ पर दी है) अवैध संतान घोषित नही किए गए है (पृष्ठ-३०) वे आगे लिखते है-''यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि मनु ने शूद्र को उच्च वर्णो की सेवा करने का आदेश दिया है, किन्तु इन सेवाओं में  ये पिछड़े वर्ग के कामगार नहीं आते। यानी पिछड़ा वर्ग के कामगारों के कार्य उच्च वर्ग की प्रत्यक्ष कोई सेवा नहीं करते। जैसा कि मनु ने कहा है। शूद्र उच्च वर्णो के दास होगे, यहां दास से सम्बंध उच्च वर्णो  की प्रत्यक्ष सेवा से है।`` वे आगे लिखते है-''उक्त आधारों पर कहा जा सकता है कि

१.     ''शूद्र कौन और कैसे`` में दी गई व्याख्या के अनुसार क्षत्रियों की दो शाखा सूर्यवंशी तथा चंन्द्रवंशी में से ''सूर्यवंशी`` अनार्य थे, जिन्हे आर्यो द्वारा धार्मिक, राजनीतिक समझौते द्वारा क्षत्रिय वर्ण में शामिल कर लिया गया।

२.    बाद में इन्हीं सूर्यवंशीय क्षत्रियों का ब्राम्हणों से संघर्ष हुआ ने इन्हे उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया। इन्ही संघर्ष के परिणाम से नये वर्ग की उत्पत्ति हुई, जिन्हे शूद्र कहा गया। में ब्राम्हण वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत आते थे यही से चातुर्वर्ण  परम्परा की शुरूआत हुई। शूद्रों में वे लोग भी सम्मलित थे जो युध्द में पराजित होकर दास बने फिर वे चाहे आर्य ही क्यों न हो।  अत: शूद्र वर्ण आर्य-अनार्य जातियों का जमावड़ा बन गया (पृष्ठ, ३०-३३-३४) यह तो रहा शूद्रों का उद्भव व विकास।

 

शेष कामगार (पिछड़ा वर्ग) जातिया कहां से आयी। इसका उत्तर निम्न बिन्दूवार दिया गया।

१.     यह जातियां आर्यो के हमले से पूर्व से भारत में विद्यमान थी, सिन्धुघाटी सभ्यता के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि उस समय लोहार, सोनार, कुम्हार जैसी कई कारीगर जातियां विद्यमान थी।

२.    आर्य हमले के प्रश्चात् इन कामगार पिछड़ेवर्ग की जातियों को अपने समाज में स्वीकार करने की कोशिश की, क्योकि-

(अ)   आर्यो को इनकी आवश्यकता थी क्योकि आर्यो के पास कामगार नही थे।

(ब)   आर्य युध्द, कृषि तथा पशुपालन के सिवाय अन्य किसी विद्या में निपूण नही थे।

(स)   आर्य इनका उपयोग आसानी से कर पाते थे, क्योकि ये जातियां आर्यो का विरोध नही करती थी चुकि ये कामगार जातियां लड़ाकू न थी।

(द)   दूसरी अन्य राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी असुर, डोम, चाण्डाल जैसी अनार्य जातियां जो आर्यो का विरोध करती थी आर्यो द्वारा कोपभाजन का शिकार बनी तथा अछूत करार दी गई।

३.    चुंकि कामगार अनार्य जाति जो शूद्रों में गिनी जाने लगी। इसलिए सूर्यवंशी अनार्य क्षत्रिय जातियों के साथ मिल कर शूद्रों में शामिल हो गई। (पृष्ठ-३१-३२)

श्री संजीव खुदशाह की यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि शूद्र तथा आज का पिछड़ा वर्ग समुदाय आर्यो की चातुवर्णी व्यवस्था के बाहर के अनार्य समुदाय के लोग थे।

अभी तक यह अवधारणा थी कि शूद्र केवल शूद्र है, किन्तु आर्यो ने शूद्रों को भी दो भागों में विभाजित किया हुआ थां एक अबहिष्कृत शूद्र, दूसरा बहिष्कृत शूद्र। पहले वर्ग में खेतीहर, पशुपालक, दस्तकारी, तेल निकालने वाले, बढ़ई, पीतल, सोना-चांदी के जेवर बनाने वाले, शिल्प, वस्त्र बुनाई, छपाई आदि का काम करने वाली जातियां थी।  इन्होने आर्यो की दासता आसानी से स्वीकार कर ली। जबकी बहिष्कृत शूद्रों में वे जातियां थी, जिन्होने आर्यो के सामने आसानी से घुटने नही टेकें विद्वान ऐसा मानते है कि ये अनार्यो में शासक जातियों के रूप् में थी। आर्यो के साथ हुए संघर्ष में पराजित हुई। इन्हे बहिष्कृत शूद्र जाति के रूप् में स्वीकार किया गया। इन्हे ही आज अछूत (अतिशूद्र) जातियों में गिना जाता है। जैसे चमड़े का काम करने वाली जाति, सफाई करने वाली जाति आदि (पृष्ठ ३८)

जिस तरह शूद्रों को दो वर्गो में बांटा गया है। संजीवजी ने कामगार पिछड़े वर्ग (शूद्र) को भी दो भागों में बांटा है-(१) उत्पादक जातियां (२) गैर उत्पादक जातियां। किन्तु पिछड़े वर्ग में जिन जातियों को सम्मिलित किया गया है उसमें भले ही अतिशूद्र (बहुत ज्यादा अछूत) जातियां का समावेश न हो किन्तु उत्पादक व गैर उत्पादक दोनो तरह की जातियों को पिछड़ा वर्ग माना गया हैं। संजीव जी ने ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` के चौथे अध्याय (जाति की पड़ताल एवं समाधान) में पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों की जो अधिकारिक सूची दी है। उसमें भी यही तथ्य है। जैसे लोहार, बढ़ई, सुनार, ठठेरा, तेली(साहू) छीपा आदि यह उत्पादक कामगार जातियां है। जबकी बैरागी (वैष्णव) (धार्मिक भिक्षावृत्ति करने वाली) भाट, चारण (राजा के सम्मान में विरूदावली का गायन करने वाली) जैसी बहुंत सी गैर उत्पादक जातियां है। पिछड़े वर्ग में उन जातियों को भी सम्मिलित किया गया है। जो हिन्दू धर्म में अनुसूचित जाति के तहत आती होगी। किन्तु बाद में उन्होने ईसाई तथा मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया; लेकिन धर्मान्तरण के बाद भी उनका काम वही परंपरागत रहा। जैसे शेख मेहतर(सफाई कामगार) आदि।

पुस्तक लेखक श्री संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग की पहचान भारत के मूल निवासी अनार्यो के रूप में पहले अध्याय में कर के यह भी स्पष्ट कर दिया था कि पिछड़े वर्ग को कैसे शूद्र वर्ण में तब्दील किया गया था। इसके बाद भी वे पुस्तक के दूसरे अध्याय -''जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिन्दूकरण`` में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति के बारे में स्मृतियों, पुराणों के मत क्या है, उसे पाठकों के सामने रखते है। क्योकि पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां अपने को क्षत्रिय और ब्राम्हण होने का दावा करती रही है। लेखक ने उसके कुछ उदाहरण भी दिए है किन्तु हम भी लोक जीवन में कई ऐसी जातियों को जानने लगे है। जिनका कार्य धार्मिक भिक्षावृत्ति या ग्रह विशेष का दान ग्रहण करना रहा है। सीधे तौर पर अपने आप को ब्राम्हण बतलाती है तथा शर्मा जैसे सरनेम ग्रहण कर चुकी है। आज वे पिछड़ा वर्ग की अधिकारिक सूची में दर्ज है। जबकी हिन्दू स्मृतिया इन्हे वर्णसंकर घोषित करती है। और इन्ही वर्ण संकर संतति में विभिन्न निम्न जातियों का उद्भव हुआ भी वे बताती है।

पिछड़े वर्ग की जो जातियॉं स्वयं को क्षत्रिय या ब्राम्हण होने का दावा करती है। लेखक ने उनमें मराठा, सूद और भूमिहार के उदाहरण प्रस्तुत किये है। किन्तु उच्च जातियों ने इनके दावों को कभी भी स्वीकार नही किया। यहां शिवाजी का उदाहरण ही पर्याप्त होगा। मुगलकाल में मराठा जाति के शिवाजी ने अपनी विरता से जब पश्चिमी महाराष्ट्र के कई राज्यों को जीतकर उनपर अपना अधिकार जमा लिया और राज तिलक कराने की सोची। तब ब्राम्हणों ने उनका राज्याभिषेक कराने से इंकार कर दिया तथा तर्क दिया कि वे शूद्र है। इस अध्याय में गोत्र क्या है? तथा अनार्य वर्ग के देव महादेव का कैसे हिन्दूकरण किया गया जाकर बिना धर्मान्तरण के अनार्यो को हिन्दू धर्म की परिधि में लाया गया की विद्वतापूर्ण विवेचना की गई है। इस अध्याय में बुध्द के क्षत्रिय होने का जो मिथक अबतक बना हुआ था, वह भी टूटा है और यह वास्तविकता सामने आई की वे शाक्य थे और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आये। बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई और यह जाति शूद्रों में शुमार होती थी। (देखे पृष्ठ-७१,७२)

अध्याय-तीन ''विकास यात्रा के विभिन्न सोपान`` में लेखक ने उच्चवर्गो के आरक्षण को रेखांकित किया तथा पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की पृष्ठभूमि को भी वर्णित करते हुए लिखा है कि- जब हमारा संविधान बन रहा था तो हमारे पास इतना समय नही था कि दलित वर्ग में आने वाली सभी जातियों की शिनाख्त की जा सकती ओर उन्हे सूचीबध्द किया जाता। अन्य दलित जातियों (पिछड़ा वर्ग की जातियां) की पहचान और उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए संविधान में एक आयोग बनाने की व्यवस्था की गई। उसी अनुसरण में २९ जनवरी १९५३ में काका कालेलकर आयोग बनाया गया। यह प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन था। किन्तु इस आयोग ने इन जातियों की भलाई की अनुशंसा करने के बजाय ब्राम्हणवादी मानसिकता प्रकट की जिससे पिछड़ों का आरक्षण खटाई में पड़ गया। बाद में १९७८ को  मण्डल आयोग बना जिसे लागू करने का श्रेय वी.पी.सिंह को गया। मण्डल आयोग ने एक खास बात अपनी रिपोर्ट में शामिल की। वह यह थी कि कुछ जातियां गांव में अछूतपन की शिकार है इन्हे अनुसूचित जाति में शामिल करने की अनुशंसा की।

संजीवजी ने पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने के विषय और उसके विरोध की व्यापक चर्चा की है। तथा उन संतों तथा महापुरूषों का भी उल्लेख किया है। जिन्होने पिछड़े वर्ग में सामाजिक चेतना का अलख जगाया।

चाल अध्याय और १४१ पृष्ठों में समाहित यह पुस्तक वास्तव में एक ऐसा शोध है जो आम आदमी के पूर्वाग्रह एवं उसकी पहले से बनी अवधारणाओं को बदल कर पिछड़े वर्ग की वास्तविकताओं को सामने लाती है। लेखक ने इसे लिखने से पहले काफी शोध किया है। कई प्रश्न वे ऐसे खड़े करते है जिनका उत्तर जात्याभिमानी लोगों को देना कठिन है। इस अनुपम कृति के लिए संजीव खुदशाह बधाई के पात्र है। यदि पिछड़ी जाति समुदाय के लोग अभी भी पूर्वाग्रह को त्याग कर इस पुस्तक में खुदशाह जी द्वारा रखी वास्तविकताओं को स्वीकार कर अपना उत्थान करने के लिए आगे आतीं है तो उनका परिश्रम सफल होगा।

 

जयप्रकाश वाल्मीकि

१४, वाल्मीकि कालोनी,

द्वारिकापुरी के पास,

शास्त्री नगर,

जयपुर-३०२०१६(राजस्थान)

 

पिछड़ा वर्ग की नई स्थापनाओं का दस्तावेज--- राजेश कुमार चौहान

वर्तमान साहित्य अक्तूबर २०१० पृ ७३

 पुस्तक समीक्षा

पिछड़ा वर्ग की नई स्थापनाओं का दस्तावेज

राजेश कुमार चौहान

''पिछड़ा वर्ग की सभी जातियॉं चाहे वह कायस्थ हो या तेली या भूमिहार या खत्री सभी जातियां अपने आपको ब्राम्हण , क्षत्रिय या वैश्य होने का दावा करती है।..... हालांकि ये दावे उच्च जातियों द्वारा कभी भी स्वीकार नहीं किये गये। बल्कि ये पिछड़े वर्ग की जातियॉं जिन धर्म ग्रन्थों पर अकाट्य श्रध्दा रखती है, जिनकी दिन-रात स्तुति करती है वे ही इन्हे उन्ही सवर्णो की नाजायज सन्तान ठहराते है।``

उपरोक्त उद्धरण संजीव खुदशाह की हालिया प्रकाशित पुस्तक 'आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग` से है। लगभग इसी आशय का एक सूक्त वाक्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कहा है- 'भारत में छोटी से छोटी जाति भी अपने से नीचे की जाति तलाश लेती है।` यहां संजीव खुदशाह और हजारी प्रसाद द्विवेदी दोनो का एक साथ उल्लेख करने का प्रयोजन यह रेखांकित करना है कि जिस टिप्पणी के लिए किसी सवर्ण को आला दर्जे का विद्वान दार्शनिक, चिंतक अथवा समाजशास्त्री मान लिया जाता है, उसी अभिव्यक्ति के लिए किसी भी दलित लेखक पर संकीर्ण-मानसिकता और जातिवादी होने का आरोप लगाया जाता है। अर्थात् जब हजारी प्रसाद द्विवेदी जातियता पर लिखते हैं तो वे आला दर्जे के आचार्य मान लिए जाते हैं और यदि संजीव खुदशाह जातियों के इतिहास को खंगाले तो उन्हे संकीर्ण दायरों से घिरा हुआ, आत्मवृत्त में घिरा हुआ अथवा जातिवादी कहा जायेगा।

अभी तक तमाम स्वीकृतियों के बावजूद दलित लेखन विवादास्पद बना हुआ है। इसे खारिज करने के लिए इस पर तमाम तरह के आरोप लगाये जाते है। लेकिन प्रतिबद्ध दलित लेखकों ने इस सबकी परवाह किये बिना अपना कार्य जारी रखा है। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण नाम और जुड़ता है- संजीव खुदशाह। संजीव खुदशाह ने 'आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग` पुस्तक लिखकर यह सिद्ध कर दिया है कि दलित लेखक मात्र आत्मकथाओं और ब्राम्हणवाद के प्रति घृणा के दायरों में ही घिरे हुए नही है, वे अतीत के प्रति घृणा का पोषण ही नही करते हैं अपितु अपने समाज और विश्व के समाजों के अतीत, वर्तमान और भविष्य का तटस्थ भाव से मुल्यांकन भी करते हैं।

संजीव खुदशाह ने 'आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग` पुस्तक में पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातियों के इतिहास और वर्तमान का मूल्यांकन पूरी तटस्थता के साथ किया है। यही कारण है कि उनके निष्कर्ष किसी अतिवाद का शिकार नही होते। कहीं-कहीं तो वे निष्कर्ष देने से भी बचते हैं। केवल तथ्य पाठक के समक्ष रख देते हैं, इस सब में वे कितना सचेत हैं, यह पुस्तक की भूमिका से भी पता चलता है- ''मैंने आम भाषा तथा सरल तरीके से अपनी बात कहने की कोशिश की है, ताकि आम आदमी को तथ्य समझने में दिक्कत न हो। जो नई स्थापनाऍं तैयार हुई है, उसके पक्ष-विपक्ष में तर्क भी दिये गये हैं। निर्णय पर ज्यादा जोर नही दिया बल्कि उसे पाठकों पर छोड़ दिया गया है।``

तथ्यों को इस तरह पाठक के समक्ष रख देना निश्चित रूप से लेखक की वस्तुनिष्ठता का परिचायक है। लेकिन इसी आधार पर कुछ बड़े आलोचक और विमर्शकारों ने पुस्तक का अवमूल्यन भी किया है। उनका कहना है कि पुस्तक में इधर-उधर बिखरे हुए और कुछ पुराने तथ्यों को सिलसिलेवार ढंग से रखा गया है, कोई मौलिक स्थापना नहीं दी गई। पुस्तक में मौलिक स्थापनाऍं न होने की शिकायत करने वाले विमर्शकार पुस्तक के संदर्भ में यह गलतफहमी पैदा कर देते है कि पुस्तक में पिछड़ा वर्ग से संबंधित तथ्य और आंकड़ेबाजी ही है, मूल्यांकन का अभाव है। वास्तव में पुस्तक में मूल्यांकन का कोई अभाव नही है, लेखक ने पुस्तक की वस्तुनिष्ठता को बचाये रखने के लिए कहीं-कहीं निर्णय देने से परहेज किया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पूरी पुस्तक में कहीं कोई स्थापना नहीं मिलती ।  हॉं इतना जरूर है कि पुस्तक में कोई सनसनीखेज स्थापना नहीं है।

इस पुस्तक के लेखक ने पिछड़ा वर्ग पर कोई टीका टिप्पणी करने के बजाय उसकी वास्तविक स्थिति को समझने समझाने का प्रयास किया है-''पिछड़ा वर्ग एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है न ही अस्पृश्य या आदिवासी इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका न ही निम्नतम होने का फायदा मिला।`` यहॉं यदि लेखक वस्तुनिष्ठता का ध्यान न रखता तो आरोपों की भाषा में टीका टिप्पणी करने की पूरी संभावना बनती है उदाहरणार्थ - कहा जा सकता था कि पिछड़ा वर्ग की जातियॉं सवर्णो की लठैत बनी रही। इन जातियों ने दलितों के साथ मिलकर ब्राम्हणवाद के विरूद्ध कोई लड़ाई नही लड़ी, उल्टे दलितों का उत्पीड़न कियां इनका ब्राम्हणों से संघर्ष स्वयं ब्राम्हण बनने की होड़ में हुआ। लेखक पिछड़ा वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करते समय ऐसी सभी प्रतिक्रियाओं से उपर उठ जाता है। अन्यथा स्वयं लेखक ने भी पिछड़ा वर्ग को पूरी तरह बरी नही कर दिया है।

लेखक ने पुस्तक के पहले ही अध्याय में मण्डल आयोग लागू होने के समय आरक्षण विरोधियों द्वारा मचाये गये उपद्रव और ऑंखों देखी घटना का जिक्र करते हुए पिछड़ा वर्ग की भूमिका पर सवाल उठाया है। लेखक का मानना है कि पिछड़ा वर्ग में चेतना का अभाव होने के कारण वह अपनी सही भूमिका निश्चित ही नहीं कर पाता और अपने विरोधियों को ही मजबूत करता है। लेखक ने पुस्तक में बार-बार यह प्रश्न भी उठाया है- जबकि पिछड़ा वर्ग से कई समाज सुधारक और क्रांतिकारी सामने आए लेकिन पिछड़ा वर्ग में चेतना का विकास क्यों नहीं हुआ?

लेखक ने ऐसे ही कुछ और प्रश्नों के उत्तर भी पुस्तक के अंतिम अध्याय कें अंतिम खंड (समाधान) में दिये हैं। पिछड़ा वर्ग में चेतना का विकास क्यों नहीं हुआ, इस संदर्भ में लेखक की मान्यता है कि पिछड़ा वर्ग जाति व्यवस्था में अपने जाति-क्रम को लेकर हमेशा उहापोह की स्थिति में रहा है। उसे एक तरफ ब्राम्हण न हो पाने का हीनताबोध है तो दूसरी तरफ दलित जातियों से उपर होने का श्रेष्ठताबोध उसकी चेतना के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। वह यदि एक तरफ सवर्णों से थप्पड़ खाता है तो दूसरी तरफ दलितों को थप्पड़ लगाकर तुष्टि पा लेता है यानी थप्पड़ का जवाब थप्पड़ से देने में कतराता रहा और वह किसी बड़े सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष नहीं किया।

पुस्तक के अंतिम अध्याय के इसी अंतिम खण्ड(समाधान) में लेखक ने ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने के साथ-साथ कुछ बहुप्रचारित मान्यताओं का पुरजोर खण्डन भी किया है और अपनी कुछ मौलिक स्थापनाऍं भी दी है। अत: जिन बड़े विमर्शकारों को पुस्तक से यह शिकायत है कि इसमें पिछड़ा वर्ग से संबंधित तथ्य और आंकड़ेबाजी है, वे इस अंतिम अध्याय को जरूर पढ़ें। ऐसे तो पुस्तक के कुल चारों अध्याय ही महत्वपूर्ण हैं। पहला अध्याय पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति और स्थिति से संबंधित है। दूसरे अध्याय में जाति और गोत्र के विवाद को तथ्यों और तर्कों के आलोक में सुलझाने का प्रयास किया है, साथ ही हिन्दूवाद की पोल खोली है।

तीसरे अध्याय में आरक्षण व्यवस्था का मूल्यांकन करते हुए लेखक इस निष्कर्ष तक पहुंचा है कि आरक्षण विरोधी सवर्ण इस बात पर ध्यान नहीं देते कि वे स्वयं सदियों से आरक्षण पाते आये हैं। सारे हिन्दूग्रन्थ इन सवर्णों को आरक्षण देते हैं। इसके अलावा पूंजी का आरक्षण भी इन्हीं सवर्णों को मिला है। सवर्णों को मिले इस आरक्षण के चलते पैदा हुई सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए दलितों और पिछड़ों को आरक्षण देना जरूरी हो जाता है। इसी अध्याय में लेखक ने पिछड़ा वर्ग के कुछ संतों और समाज सुधारकों का परिचय भी दिया है।

अंतिम अध्याय में पिछड़ा वर्ग की जातियों का विवेचन उनके पेशों के आधार पर किया है और मंडल कमीशन की रिपोर्ट का मूल्यांकन करते हुए एक प्रश्नोत्तरी भी दी है। और अंत में कुछ समाधान भी प्रस्तुत किये है। ये समाधान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ये लेखक की वस्तुपरकता के साथ-साथ उसकी पक्षधरता भी सुनिश्चित करते हैं। स्पष्ट है कि लेखक ब्राम्हणवाद विरोधी मुहिम और समता मूलक संघर्ष की अगली कतार में है।

रोजश कुमार चौहान

5बी/16एफ, गली नं.-16, गुरूद्वारा मौहल्ला,

मौजपुर, दिल्ली-110053

मो. 09278210309


Saturday, October 30, 2010

जातियों का इतिहास और वर्तमान _--_ Samayant...


जातियों का इतिहास और वर्तमान

 
October 25th, 2010

आलोचना

जयप्रकाश वाल्मीकि

आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग : पूर्वाग्रह मिथक एवं वास्तविकताएं : संजीव खुदशाह; मूल्य: 200 रु, शिल्पायन

संजीव खुदशाह दलित रचनाकार साथ ही एक शोधकर्ता रचनाकार के रूप में पहचाने जाते हैं। उनकी यह पहचान उनकी पुस्तक सफाई कामगार समुदाय के कारण बनी और अब ज्यादा पुष्ट हो गई है। उनकी यह पुस्तक एक शोधपूर्ण आलेख है। पिछड़े वर्ग को लेकर समाज में जो मिथक गढ़े हुए थे लेखक ने उससे अलग हटकर वास्तविकताओं को प्रस्तुत किया है।

शुरुआत मानव उत्पत्ति पर विचार करते हुए की गई है। खुदशाह ने इस हेतु धर्मशास्त्रों में मानव उत्पत्ति को लेकर व्याख्यायित मान्यताओं को सम्मिलित किया है। हिंदू, ईसाई (सृष्टि का वर्णन)और इस्लाम (सुरतुल बकरति, आयत् सं. 30 से 37) को भी उद्धृत कर अंत में वैज्ञानिक मान्यताओं के अंतर्गत स्पष्ट किया है कि मानव उत्पत्ति करोड़ों वर्ष के सतत् विकास का परिणाम है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को जिस तार्किक और तथ्यपूर्ण ढंग से लेखक ने पाठकों के समक्ष रखा है, वह एक नई दृष्टि देता है। फिर भी आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग। पुस्तक की शुरुआत अगर मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को सुलझाते हुए नहीं भी की जाती तो भी पुस्तक का मूल उद्देश्य प्रभावित नहीं होता।

चूंकि भारत में जातीय प्रथा होने के कारण मानव का शोषक या शोषित होना या शासक या शासित होना धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण है, इसलिए लेखक श्री संजीव ने पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए हिंदूधर्म शास्त्रों, स्मृतियों सहित कई विद्वानों के मतों को खंगाला और उद्धृत किया है।
चार अध्यायों में समाहित यह पुस्तक पिछड़े वर्ग से संबंधित अब तक बनी हुई अवधारणाओं, मिथक तथा पूर्वाग्रह जो बने हुए हैं उनकी पहचान कर पाठकों के सामने तर्क संगत ढंग से मय तथ्यों के वास्तविकताएं रखती है। जैसे आज का पिछड़ा वर्ग हिंदूधर्म के चौथे वर्ण 'शूद्र' से संबंधित माना जाता है। किंतु खुदशाह के इस शोध प्रबंध से स्पष्ट होता है कि आधुनिक भारत का पिछड़ा वर्ग मूलरूप से आर्य व्यवस्था से बाहर के लोग हैं। शूद्र वर्ण के नहीं। यह अलग बात है कि बाद में इनका शूद्रों में समावेश कर लिया गया। लेखक ने इसे स्पष्ट करने से पूर्व शूद्र वर्ण की उत्पत्ति और उसके विकास को रेखांकित किया है। उनके अनुसार आर्यों में पहले तीन ही वर्ण थे। लेखक ने ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और तैत्तरीय ब्राह्मण सहित डॉ. अम्बेडकर के हवाले से कहा है कि यहे तीनों ग्रंथ आर्यों के पहले ग्रंथ हैं और केवल तीन वर्णों की ही पुष्टि करते हैं। (पृष्ठ-26) वैसे ऋग्वेद के अंतिम दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में चार वर्णों का वर्णन है किंतु उक्त दसवें मंडल को बाद में जोड़ा हुआ माना गया है।

शूद्रों के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए खुदशाह ने दोहराया है कि सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियां अनार्य थीं, जो आज हिंदूधर्म की संस्कृति को संजोए हुए हैं। क्योंकि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन सूचियों में अवैध संतान घोषित नहीं किए गए हैं (पृष्ठ-30) वह लिखते हैं—"यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि मनु ने शूद्र को उच्च वर्णों की सेवा करने का आदेश दिया है, किंतु इन सेवाओं में ये पिछड़े वर्ग के कामगार नहीं आते। यानि पिछड़े वर्ग के कामगारों के कार्य उच्च वर्ग की प्रत्यक्ष कोई सेवा नहीं करते। जैसा कि मनु ने कहा है—शूद्र उच्च वर्ग के दास होंगे। यहां दास से संबंध उच्च वर्णों की प्रत्यक्ष सेवा से है। वह आगे लिखते हैं—उक्त आधारों पर कहा जा सकता है कि 1. शूद्र कौन और कैसे में दी गई व्याख्या के अनुसार क्षत्रियों की दो शाखा सूर्यवंशी तथा चंद्रवंशी में से सूर्यवंशी अनार्य थे, जिन्हें आर्यों द्वारा धार्मिक, राजनीतिक समझौते द्वारा क्षत्रिय वर्ण में शामिल कर लिया गया।
2. बाद में इन्हीं सूर्यवंशीय क्षत्रियों का ब्राह्मणों से संघर्ष हुआ जिसने इन्हें उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया। इसी संघर्ष के परिणाम से नए वर्ग की उत्पत्ति हुई, जिसे शूद्र कहा गया। ये ब्राह्मण वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत आते थे। यहीं से चातुर्वर्ण परंपरा की शुरुआत हुई। शूद्रों में वे लोग भी सम्मिलित थे जो युद्ध में पराजित होकर दास बने फिर वे चाहे आर्य ही क्यों न हों। अत: शूद्र वर्ण आर्य-अनार्य जातियों का जमावड़ा बन गया।
शेष कामगार (पिछड़ा वर्ग) जातियां कहां से आईं। यह निम्न बिंदुओं के तहत दिया गया है।
1. यह जातियां आर्यों के हमले से पूर्व से भारत में विद्यमान थीं, सिंधु घाटी सभ्यता के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि उस समय लोहार, सोनार, कुम्हार जैसी कई कारीगर जातियां विद्यमान थीं।
2. आर्य हमले के पश्चात इन कामगार पिछड़ेवर्ग की जातियों को अपने समाज में स्वीकार करने की कोशिश की, क्योंकि
(अ) आर्यों को इनकी आवश्यकता थी क्योंकि आर्यों के पास कामगार नहीं थे।
(ब) आर्य युद्ध, कृषि तथा पशु पालन के सिवाय अन्य किसी विद्या में निपुण नहीं थे।
(स) आर्य इनका उपयोग आसानी से कर पाते थे, क्योंकि ये जातियां आर्यों का विरोध नहीं करती थीं चूंकि ये कामगार जातियां लड़ाकू न थीं।
(द) दूसरे अन्य राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी असुर, डोम, चांडाल जैसी अनार्य जातियां जो आर्यों का विरोध करती थीं आर्यों द्वारा कोपभाजन का शिकार बनीं तथा अछूत करार दी गईं।
3. चूंकि कामगार अनार्य जाति शूद्रों में गिनी जाने लगीं। इसलिए सूर्यवंशी अनार्य क्षत्रिय जातियों के साथ मिलकर शूद्रों में शामिल हो गई। (पृष्ठ-31-32)
अभी तक यह अवधारणा थी कि शूद्र केवल शूद्र हैं, किंतु आर्यों ने शूद्रों को भी दो भागों में विभाजित किया हुआ था। एक अबहिष्कृत शूद्र, दूसरा बहिष्कृत शूद्र। पहले वर्ग में खेतिहर, पशुपालक, दस्तकारी, तेल निकालने वाले, बढ़ई, पीतल, सोना-चांदी के जेवर बनाने वाले, शिल्प, वस्त्र बुनाई, छपाई आदि का काम करने वाली जातियां थीं। इन्होंने आर्यों की दासता आसानी से स्वीकार कर ली। जबकि बहिष्कृत शूद्रों में वे जातियां थीं, जिन्होंने आर्यों के सामने आसानी से घुटने नहीं टेके। विद्वान ऐसा मानते हैं कि ये अनार्यों में शासक जातियों के रूप में थीं। आर्यों के साथ हुए संघर्ष में पराजित हुईं। इन्हें बहिष्कृत शूद्र जाति के रूप में स्वीकार किया गया। इन्हें ही आज अछूत (अतिशूद्र) जातियों में गिना जाता है।

जिस तरह शूद्रों को दो वर्गों में बांटा गया है। संजीव ने कामगार पिछड़े वर्ग(शूद्र) को भी दो भागों में बांटा है—(1) उत्पादक जातियां (2) गैर उत्पादक जातियां। किंतु पिछड़े वर्ग में जिन जातियों को सम्मिलित किया गया है उसमें भले ही अतिशूद्र (बहुत ज्यादा अछूत) जातियों का समावेश न हो किंतु उत्पादक व गैर उत्पादक दोनों तरह की जातियों को पिछड़ा वर्ग माना गया है। चौथे अध्याय (जाति की पड़ताल एवं समाधान) में पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों की जो आधिकारिक सूची दी है। उसमें भी यही तथ्य है। जैसे लोहार, बढ़ई, सुनार, ठठेरा, तेली (साहू) छीपा आदि यह उत्पादक कामगार जातियां हैं। जबकि बैरागी (वैष्णव) (धार्मिक भिक्षावृत्ति करने वाली) भाट, चारण (राजा के सम्मान में विरुदावली का गायन करने वाली) जैसी बहुत-सी गैर जातियां हैं। पिछड़े वर्ग में उन जातियों को भी सम्मिलित किया गया है। जो हिंदूधर्म में अनुसूचित जाति के तहत आती होंगी। किंतु बाद में उन्होंने ईसाई तथा मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया; लेकिन धर्मांतरण के बाद भी उनका काम वही परंपरागत रहा। जैसे शेख मेहतर (सफाई कामगार) आदि।

पिछड़े वर्ग की पहचान के बाद भी वह दूसरे अध्याय—'जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिंदूकरण' में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति के बारे में स्मृतियों, पुराणों के मत क्या हैं, उसे पाठकों के सामने रखते हैं। क्योंकि पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां अपने को क्षत्रिय और ब्राह्मण होने का दावा करती रही हैं। लेखक ने उसके कुछ उदाहरण भी दिए हैं किंतु हम भी लोकजीवन में कई ऐसी जातियों को जानने लगे हैं, जिनका कार्य धार्मिक भिक्षावृत्ति या ग्रह विशेष का दान ग्रहण करना रहा है। सीधे तौर पर अपने आप को ब्राह्मण बतलाती हैं तथा शर्मा जैसे सरनेम ग्रहण कर चुकी हैं। आज वे पिछड़े वर्ग की आधिकारिक सूची में दर्ज हैं। जबकि हिंदू स्मृतियां उन्हें वर्णसंकर घोषित करती हैं और इन्हीं वर्ण संकर संतति से विभिन्न निम्न जातियों का उद्भव हुआ बताती हैं।

पिछड़े वर्ग की जो जातियां स्वयं को क्षत्रिय या ब्राह्मण होने का दावा करती हैं, लेखक ने उनमें मराठा, सूद और भूमिहार के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। किंतु उच्च जातियों ने इनके दावों को कभी भी स्वीकार नहीं किया। यहां शिवाजी का उदाहरण ही पर्याप्त होगा। मुगलकाल में मराठा जाति के शिवाजी ने अपनी वीरता से जब पश्चिमी महाराष्ट्र के कई राज्यों को जीत कर उन पर अपना अधिकार जमा लिया और राज तिलक कराने की सोची तब ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक कराने से इंकार कर दिया तथा तर्क दिया कि वह शूद्र हैं। इस अध्याय में गोत्र क्या है? तथा अनार्य वर्ग के देव-महादेव का कैसे हिंदूकरण करके बिना धर्मांतरण के अनार्यों को हिंदू धर्म की परिधि में लाया गया की विद्वतापूर्ण विवेचना की गई है। इस में बुद्ध के क्षत्रिय होने का जो मिथक अब तक बना हुआ था, वह भी टूटा है और यह वास्तविकता सामने आई कि वे शाक्य थे। और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आए। बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई और यह जाति शूद्रों में शुमार होती थी। (देखें पृष्ठ-71-72)

अध्याय-तीन विकास यात्रा के विभिन्न सोपान में लेखक ने उच्च वर्गों के आरक्षण को रेखांकित किया तथा पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की पृष्ठभूमि को भी वर्णित करते हुए लिखा है कि—"जब हमारा संविधान बन रहा था तो हमारे पास इतना समय नहीं था कि दलित वर्गों में आने वाली सभी जातियों की शिनाख्त की जा सकती और उन्हें सूचीबद्ध किया जाता। अन्य दलित जातियों (पिछड़ा वर्ग की जातियां) की पहचान और उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए संविधान में एक आयोग बनाने की व्यवस्था की गई। उसी के अनुसरण में 29 जनवरी 1953 में काका कालेलकर आयोग बनाया गया। यह प्रथम पिछड़े वर्ग आयोग का गठन था। किंतु इस आयोग ने इन जातियों की भलाई की अनुशंसा करने के बजाए ब्राह्मणवादी मानसिकता प्रकट की जिससे पिछड़ों का आरक्षण खटाई में पड़ गया। बाद में 1978 में मंडल आयोग बना जिसे लागू करने का श्रेय वी.पी.सिंह को गया।'' संजीव ने पिछड़ेवर्ग को आरक्षण देने के विषय और उसके विरोध की व्यापक चर्चा की है।
लेखक कई ऐसे प्रश्न खड़े करते हैं जिनका उत्तर जात्याभिमानी लोगों को देना कठिन है। इस अनुपम कृति के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं।

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Sunday, October 3, 2010

पिछड़े वर्ग की जांच पड़ताल

देशबंधु न्यूज पेपर दिनांक १७ अगस्त २०१०
पुस्तक समीक्षा
पिछड़े वर्ग की जांच पड़ताल
जीवेश प्रभाकर
भारतीय समाज आज भी छोटे-छोटे जातीय समुदायों में बटां हुआ है। वर्तमान परिस्थितियों में यह लगातार जातियों के दीर्घ समुच्चयों से छिटककर अनेक उपजातियों के लघु समुच्चयों में बंटता जा रहा है। किसी भी समाज का अध्ययन निश्चित रूप से उनके उत्थान के उद्धेश्य से ही किया जाता है। प्राचीन काल से ही भारत में जातिगत व्यवस्था को लेकर अनेक प्रश्न खड़े होते रहे है या किए जाते रहे है। इतिहासकारों एवं विद्वानों में वर्ण व्यवस्था को लेकर प्राचीन काल से ही विवाद एवं संघर्ष की स्थिति बनी रही, यहां तक कि वर्णो के वर्गीकरण क प्रक्रिया भी समानान्तर रूप से चलती रही। कहा जाता है कि इतिहास हमारे दिमाग में होता है जो वर्तमान परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप भविष्य के लिए लिखा जाता है। भारत में स्वतंत्रता के पूर्व से ही समाज के पिछड़े वर्ग का वर्गीकरण प्रारंभ हुआ। इसका परिणाम वृहत्तर रूप में आंधुनिक भारत में देखने मिल रहा है। इसी पिछड़ा वर्ग में बढ़ती वर्णेत्तरीकरण की प्रक्रिया और पिछड़े वर्ग की उत्पत्ती से लेकर वर्तमान स्थिति को रेखांकित करती है संजीव खुदशाह की पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग``। जैसा कि पुस्तक के उपशीर्षक से स्पष्ट रूप से कहा गया है (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकाताएं) उसी के अनुरूप यह पुस्तक चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की मीमांसा करती है।
लेखक ने अपनी प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से  स्वीकार किया है कि यह एक शोध प्रबंध है। शोध प्रकल्प के रूप में लेखक ने काफी संदर्भ सामग्री एकत्रित की है। इन संदर्भो में वेद, स्मृति ग्रंथो से लेकर आधुनिक इतिहासकारों एवं विचारकों के उद्धहरण व मान्यताएं शामिल है।
मुख्य रूप से चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की स्थिति की पड़ताल करती इस पुस्तक का प्रथम अध्याय पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति और इस वर्ग के वर्गीकरण पर है। प्रथम अध्याय में मानव की उत्पत्ति पर विभिन्न धार्मिक व वैज्ञानिक मान्यताओं की चर्चा है असमें हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था के प्रारंभीक सोपान का उल्लेख है। डॉ. अम्बेडकर द्वारा प्रतिस्थापित सिर्फ तीन वर्ण को मान्यता देते हुए लेखक संपूर्ण पिछड़े वर्ग को चौथे वर्ण में शामिल करता है। इस मान्यता को आगे बढ़ाते हुए प्रथम अध्याय में चौथे वर्ण में कार्य के आधार पर उत्पादक व अनुत्पादक जातियों के रूप में चौथे वर्ण का वर्गीकरण किया गया है एवं उनके उत्पादक मूल्य के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था में उन्हे पृश्य या अस्पृश्य माना गया है।
प्रारंभिक अवधारणा के पश्चात पिछड़े वर्ग में शामिल विभिन्न पिछड़ी जातियों के गोत्र को लेकर मान्यताओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। मनुस्मृति व्दारा निर्धारित विभिन्न वर्णो के अन्तरसंबंधों से उत्पन्न संकर जातियों की विस्तृत सारणी दी गई है। रक्त मिश्रण के कारण एवं इसके उत्पादों के वर्ण व वर्ग निर्धारण की पौराणिक मान्यताओं का विस्तार से अध्ययन कर उसकी पड़ताल की गई है जो काफी रोचक व जानकारीपूर्ण है। इसके साथ ही वर्तमान में शक्तिशाली और संपन्न जातियों कायस्थ, मराठा एवं कुछ अन्य पिछड़ी जातियों व्दारा स्वयं को गोत्र के आधार पर उच्च वर्ण में शामिल किए जाने की अवधारणा पर प्रश्न खड़े किए है। इस अध्याय में सदर्भो का हवाला देते हुए लोक मान्य देवी देवताओं को सवर्णो द्वारा स्वीकार किए जाने के पीछे नीहित स्वार्थ व समाज पर उच्चवर्ण का दबदवा बनाए रखने की साजिश पर प्रकाश डाला गया है।
उपलब्ध गजट एवं अभिलेखों के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अंग्रजों द्वारा अपनी सुविधा हेतु पहली बार जातीय आधार पर भारत की जनगणना करवाई गई। दरअसल १८५७ के संग्राम के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी के स्थान पर भारत जब सीधे ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन हुआ तो प्रशासनिक व्यवस्था अपने अनुरूप करने के उद्धेश्य से अंग्रेजों ने भारतीय समाज को जातीय आधार पर वर्गीकृत कर दस्तावेजीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ की। इस दौर में शासक की निगाह में उच्च स्थान प्राप्त करने के उद्धेश्य से सवर्णो के साथ साथ पिछड़े वर्गो में भी जातिय अस्मिता और प्रतिष्ठा के गौरव गान की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। लेखक ने अपने शोध में यह बताया है कि पौराणिक काल में लगातार पिछड़े वर्ग को दलित पतित रखने की कोशिशों को अंग्रेजो ने विराम लगाया और मानव को मानव समझते हुए भारतीय समाज को समतामूलक बनाने की दिशा में सार्थक पहल प्रारंभ की। हालांकि इस पर कुछ विद्वानों की राय यह भी है कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक बंटवारे के साथ-साथ समाज को जातिय आधार पर बांटने पर यह कुत्सित प्रयास था। इस संदर्भ में लेखक ने डॉ. अम्बेडकर व महात्मा गांधी के पूना पैक्ट का भी जिक्र किया है। पूना पैक्ट आज भी कई दलित, पिछड़े वर्ग एवं कई सामान्य वर्ग के विचारकों की निगाह में पिछड़ो की हार माना जाता है जबकि वृहत्तर रूप से पूना पैक्ट हिन्दोस्तान को जातीय आधार पर बंटवारे से बचाने की दिशा में उठाया गया महत्पूण कदम करार दिया जाता है। आधुनिक संदर्भ में यह दुखद है कि एक बार फिर जातीय अस्मिता को वर्तमान सत्ताधारियों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है।
संजीव खुदशाह अपनी पुस्तक के इस अध्याय में आरक्षण व्यवस्था की पड़ताल करते हुए विभिन्न जातियों की अधीकृत सूची के साथ ही इस सूची में शामिल होने आतुर जातियों की चर्चा भी करते है। यहां लेखक १९३१ में अंग्रेजों द्वारार जातीय आधार पर करवाई गई जनगणना के आंकड़े नही उद्धत करते जो पुस्तक को और मजबूती प्रदान करते है। जबकि प्रथम अध्याय में अंग्रेजों द्वारा १८७२ में करवाए गए जातीय दस्तावेजों का उल्लेख किया गया है। दरअसल यह बात काबिले गौर हे कि ये आयोग स्वतंत्र भारत में गाठित किए गए जो कि आधुनिक भारत के निर्माण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे है। इस प्रक्रिया में समाज का लगभग हर पिछड़ा तबका अपनी उन्नति और प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि अगड़ी जाति के कई संवेदनशील लोग भी इस आंदोलन में पिछड़े वर्ग के साथ है। लेखक की किताब भी उन्ही लोगों को समर्पित है जो भारतीय समाज में मनुष्यों को समान दर्जा दिलाए जाने के लिए संघर्षरत है। यह समर्पण उनकी मंशा व मानसिकता को पाठकों के सामने उद्धाटित करता है।
भारतीय समाज के पिछड़े वर्ग में राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं का आगाज गुलामी के दौर में ही दक्षिण में हो चुका था मगर उत्तर भारत में लम्बे समय तक कांग्रेस राजनैतिक क्षेत्र में पिछड़े वर्ग की हिमायती के रूप में अपना स्थान बनाए रखीं । मण्डल अयोग के गठन एवं उसकी सिफारिशों के पश्चात कांशीराम ने उन सिफारिशों के क्रियान्वयन हेतु पिछड़े वर्ग को संगठित कर नए समीकरण की शुरूवात की। इस पुस्तक में इस जागृति और आंदोलन पर भी चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि कांशीराम के उदय से भारतीय राजनीति में न सिर्फ हिन्दू बल्कि मुसलमानों के भी पिछड़े वर्ग की प्रतिष्ठा पुन:स्थापित होने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। दरअसल आदिकाल से उत्तर भारत में सामाजिक आंदोलन कभी भी व्यापक रूप से परिर्वतन कर पाने में सक्षम नहीं रहे। उत्तर भारत में राजनैतिक सत्ता ही जातीय प्रतिष्ठा या सामाजिक व्यवस्था में जातीय समीकरण के उत्थान व पतन की कारक नही रही। इस बात पर लेखक ने कुछ पिछड़ी जनजातियों की शासक व विजयी जातियों एवं समुदाय के वीर पुरूषों का जिक्र किया है।
अंतिम अध्याय में लेखक पिछड़े वर्ग में  शामिल जातियों की पड़ताल करते हुए एक बार फिर कार्य के आधार पर जातियों की व्याख्या एवं वर्गीकरण करते हुए मण्डल आयोग की सिफारिशों के अनुसार अधीकृत रूप में पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों का विस्तृत विवरण देते हैं। इस सूची में सभी धर्मो एवं समुदाय की पिछड़ी जातियों का विवरण है। इसी अध्याय में वे पिछड़े वर्ग की समस्याओं के कारणों एवं उसके समाधान की संक्षिप्त चर्चा करते है। आरक्षण के पक्ष विपक्ष में प्रश्नोत्तरी के माध्यम से चर्चा की गई है।
संजीव खुदशाह छत्तीसगढ़ के है। इस बात का उल्लेख दो कारणों से  आवश्यक सा लगता है। पहला इसलिए कि पूरी पुस्तक की भाषा बहुत सौम्य और विनय प्रधान है। स्वर कहीं भी आक्रामक या आरोपात्मक नही होते जबकि हाल के वर्षो में इस तरह का अधिकतर लेखन आक्रामक ही रहा है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण इस क्षेत्र से होने के बावजूद लेखक ने इस पिछड़े वर्ग की इस वृहत्तर शोधपरक पुस्तक में स्थानीयता की लगभग अनदेखी की गई है। हालांकि उनकी पुस्तक प्रांतीय या क्षेत्रीय सीमाओं में बांधकर नही देखी जा सकती।
आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग पुस्तक के लेखक ने बहुत परिश्रम व लगन से शोध कार्य किया है। यह पुस्तक संजीव खुदशाह की पूर्व कृति ''सफाई कामगार समुदाय`` की अगली कड़ी के रूप में सामने आई है। ''सफाई कामगार समुदाय`` काफी चर्चित पुस्तक रही है। यह पुस्तक उसी श्रंखला को आगे बढ़ाते हुए पिछड़े वर्ग की वर्तमान स्थिति को उजागर करती है। लेखक ने सभी वर्ण व वर्ग की व्याख्या में पूरी तटस्थता बरती हैं। उनकी खोजपूर्ण पुस्तक में हालांकि सभी तथ्यों एवं उद्धहरण को शामिल किया जा पाना संभव नही हो सकता फिर भी यह एक गंभीर विमर्श की मगर पठनीय पुस्तक है। प्रथम कृति ''सफाई कामगार समुदाय`` के पश्चात लेखक संजीव खुदशाह की ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` लम्बे समय के अंतराल के पश्चात आई है मगर इस पुस्तक के लिए की गई मेहनत के परिणामस्वरूप शोधार्थियों के साथ ही आम पाठकों के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।
 जीवेश प्रभाकर
रोहिणीपुरम-२
डगनीया रायपुर छत्तीसगढ़
492001
मो. 09425506574

Tuesday, September 28, 2010

भारतीय जाति व्यवस्था पर एक विमर्श

पुस्तक समीक्षा

हरिभूमि रविवार ३ जनवरी २०१० रविवार भूमि

भारतीय जाति व्यवस्था पर एक विमर्श

·        विज्ञान भूषण

 

हाल मे ही प्रकाशित हुई पुस्तक 'आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)` में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, समयानुसार उसके स्वरूप में हुए परिवर्तनों ओर उनकी वर्तमान स्थिति के वर्णन के बहाने भारतीय जाति-व्यवस्था पर भी अनेक दृष्टिकोणों से प्रकाश डाला गया है। विभिन्न मान्यताओं और धार्मिक ग्रंथो के उध्दरणों की सहायता स लेखक संजीव खुदशाह ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि वास्तव में पिछड़ा वर्ग का जन्म भारतीय वर्ण व्यवस्था में कब और किन परिस्थितियों में हुआ? तत्कालीन समाज में उनकी भुमिका और दशा का प्रामाणिक वर्णन की स्थितियों पर भी गहन विमर्श प्रस्तुत किया है। सामाजिक समरसता और समभाव के पक्षधर जागरूक बुध्दिजीवियों व्दारा पिछड़े वर्ग के लोगो को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए किए गए प्रयत्नों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है।

विदेशों में आरक्षण की स्थितियों, काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग की रिपोर्ट पर भी विस्तृत चर्चा की गई है। इसके साथ ही लेखक ने इस वर्ग के पिछड़ेपन के कारणों को भी उजागर  करने का प्रयास किया है।

निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि लेखक ने इस पुस्तक के माध्यम से समाज के निचले तबके में जीवन व्यतीत करने वालों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की विस्तृत जानकारी को प्रामाणिक आंकड़ो के साथ प्रस्तुत किया है।

यह पुस्तक समाज में पिछड़े वर्ग की वास्तविक स्थिति को स्पष्ट करने की मांग भी करती है, क्योंकि 'सवर्ण न होने का क्षोभ और अस्पृश्य न होने का गुमान` जैसी मन:स्थिति में इस वर्ग के लोग सदियों से जीते चले आ रहे है। कहना चाहिए, यह पुस्तक भारतीय जाति व्यवस्था को नए संदर्भो और जरूरतों के अनुसार पुननिर्मित करने के लिए विचारकों को प्रेरित भी करती है।