Tuesday, November 9, 2010

पिछड़ा वर्ग की नई स्थापनाओं का दस्तावेज--- राजेश कुमार चौहान

वर्तमान साहित्य अक्तूबर २०१० पृ ७३

 पुस्तक समीक्षा

पिछड़ा वर्ग की नई स्थापनाओं का दस्तावेज

राजेश कुमार चौहान

''पिछड़ा वर्ग की सभी जातियॉं चाहे वह कायस्थ हो या तेली या भूमिहार या खत्री सभी जातियां अपने आपको ब्राम्हण , क्षत्रिय या वैश्य होने का दावा करती है।..... हालांकि ये दावे उच्च जातियों द्वारा कभी भी स्वीकार नहीं किये गये। बल्कि ये पिछड़े वर्ग की जातियॉं जिन धर्म ग्रन्थों पर अकाट्य श्रध्दा रखती है, जिनकी दिन-रात स्तुति करती है वे ही इन्हे उन्ही सवर्णो की नाजायज सन्तान ठहराते है।``

उपरोक्त उद्धरण संजीव खुदशाह की हालिया प्रकाशित पुस्तक 'आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग` से है। लगभग इसी आशय का एक सूक्त वाक्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कहा है- 'भारत में छोटी से छोटी जाति भी अपने से नीचे की जाति तलाश लेती है।` यहां संजीव खुदशाह और हजारी प्रसाद द्विवेदी दोनो का एक साथ उल्लेख करने का प्रयोजन यह रेखांकित करना है कि जिस टिप्पणी के लिए किसी सवर्ण को आला दर्जे का विद्वान दार्शनिक, चिंतक अथवा समाजशास्त्री मान लिया जाता है, उसी अभिव्यक्ति के लिए किसी भी दलित लेखक पर संकीर्ण-मानसिकता और जातिवादी होने का आरोप लगाया जाता है। अर्थात् जब हजारी प्रसाद द्विवेदी जातियता पर लिखते हैं तो वे आला दर्जे के आचार्य मान लिए जाते हैं और यदि संजीव खुदशाह जातियों के इतिहास को खंगाले तो उन्हे संकीर्ण दायरों से घिरा हुआ, आत्मवृत्त में घिरा हुआ अथवा जातिवादी कहा जायेगा।

अभी तक तमाम स्वीकृतियों के बावजूद दलित लेखन विवादास्पद बना हुआ है। इसे खारिज करने के लिए इस पर तमाम तरह के आरोप लगाये जाते है। लेकिन प्रतिबद्ध दलित लेखकों ने इस सबकी परवाह किये बिना अपना कार्य जारी रखा है। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण नाम और जुड़ता है- संजीव खुदशाह। संजीव खुदशाह ने 'आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग` पुस्तक लिखकर यह सिद्ध कर दिया है कि दलित लेखक मात्र आत्मकथाओं और ब्राम्हणवाद के प्रति घृणा के दायरों में ही घिरे हुए नही है, वे अतीत के प्रति घृणा का पोषण ही नही करते हैं अपितु अपने समाज और विश्व के समाजों के अतीत, वर्तमान और भविष्य का तटस्थ भाव से मुल्यांकन भी करते हैं।

संजीव खुदशाह ने 'आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग` पुस्तक में पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातियों के इतिहास और वर्तमान का मूल्यांकन पूरी तटस्थता के साथ किया है। यही कारण है कि उनके निष्कर्ष किसी अतिवाद का शिकार नही होते। कहीं-कहीं तो वे निष्कर्ष देने से भी बचते हैं। केवल तथ्य पाठक के समक्ष रख देते हैं, इस सब में वे कितना सचेत हैं, यह पुस्तक की भूमिका से भी पता चलता है- ''मैंने आम भाषा तथा सरल तरीके से अपनी बात कहने की कोशिश की है, ताकि आम आदमी को तथ्य समझने में दिक्कत न हो। जो नई स्थापनाऍं तैयार हुई है, उसके पक्ष-विपक्ष में तर्क भी दिये गये हैं। निर्णय पर ज्यादा जोर नही दिया बल्कि उसे पाठकों पर छोड़ दिया गया है।``

तथ्यों को इस तरह पाठक के समक्ष रख देना निश्चित रूप से लेखक की वस्तुनिष्ठता का परिचायक है। लेकिन इसी आधार पर कुछ बड़े आलोचक और विमर्शकारों ने पुस्तक का अवमूल्यन भी किया है। उनका कहना है कि पुस्तक में इधर-उधर बिखरे हुए और कुछ पुराने तथ्यों को सिलसिलेवार ढंग से रखा गया है, कोई मौलिक स्थापना नहीं दी गई। पुस्तक में मौलिक स्थापनाऍं न होने की शिकायत करने वाले विमर्शकार पुस्तक के संदर्भ में यह गलतफहमी पैदा कर देते है कि पुस्तक में पिछड़ा वर्ग से संबंधित तथ्य और आंकड़ेबाजी ही है, मूल्यांकन का अभाव है। वास्तव में पुस्तक में मूल्यांकन का कोई अभाव नही है, लेखक ने पुस्तक की वस्तुनिष्ठता को बचाये रखने के लिए कहीं-कहीं निर्णय देने से परहेज किया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पूरी पुस्तक में कहीं कोई स्थापना नहीं मिलती ।  हॉं इतना जरूर है कि पुस्तक में कोई सनसनीखेज स्थापना नहीं है।

इस पुस्तक के लेखक ने पिछड़ा वर्ग पर कोई टीका टिप्पणी करने के बजाय उसकी वास्तविक स्थिति को समझने समझाने का प्रयास किया है-''पिछड़ा वर्ग एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है न ही अस्पृश्य या आदिवासी इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका न ही निम्नतम होने का फायदा मिला।`` यहॉं यदि लेखक वस्तुनिष्ठता का ध्यान न रखता तो आरोपों की भाषा में टीका टिप्पणी करने की पूरी संभावना बनती है उदाहरणार्थ - कहा जा सकता था कि पिछड़ा वर्ग की जातियॉं सवर्णो की लठैत बनी रही। इन जातियों ने दलितों के साथ मिलकर ब्राम्हणवाद के विरूद्ध कोई लड़ाई नही लड़ी, उल्टे दलितों का उत्पीड़न कियां इनका ब्राम्हणों से संघर्ष स्वयं ब्राम्हण बनने की होड़ में हुआ। लेखक पिछड़ा वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करते समय ऐसी सभी प्रतिक्रियाओं से उपर उठ जाता है। अन्यथा स्वयं लेखक ने भी पिछड़ा वर्ग को पूरी तरह बरी नही कर दिया है।

लेखक ने पुस्तक के पहले ही अध्याय में मण्डल आयोग लागू होने के समय आरक्षण विरोधियों द्वारा मचाये गये उपद्रव और ऑंखों देखी घटना का जिक्र करते हुए पिछड़ा वर्ग की भूमिका पर सवाल उठाया है। लेखक का मानना है कि पिछड़ा वर्ग में चेतना का अभाव होने के कारण वह अपनी सही भूमिका निश्चित ही नहीं कर पाता और अपने विरोधियों को ही मजबूत करता है। लेखक ने पुस्तक में बार-बार यह प्रश्न भी उठाया है- जबकि पिछड़ा वर्ग से कई समाज सुधारक और क्रांतिकारी सामने आए लेकिन पिछड़ा वर्ग में चेतना का विकास क्यों नहीं हुआ?

लेखक ने ऐसे ही कुछ और प्रश्नों के उत्तर भी पुस्तक के अंतिम अध्याय कें अंतिम खंड (समाधान) में दिये हैं। पिछड़ा वर्ग में चेतना का विकास क्यों नहीं हुआ, इस संदर्भ में लेखक की मान्यता है कि पिछड़ा वर्ग जाति व्यवस्था में अपने जाति-क्रम को लेकर हमेशा उहापोह की स्थिति में रहा है। उसे एक तरफ ब्राम्हण न हो पाने का हीनताबोध है तो दूसरी तरफ दलित जातियों से उपर होने का श्रेष्ठताबोध उसकी चेतना के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। वह यदि एक तरफ सवर्णों से थप्पड़ खाता है तो दूसरी तरफ दलितों को थप्पड़ लगाकर तुष्टि पा लेता है यानी थप्पड़ का जवाब थप्पड़ से देने में कतराता रहा और वह किसी बड़े सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष नहीं किया।

पुस्तक के अंतिम अध्याय के इसी अंतिम खण्ड(समाधान) में लेखक ने ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने के साथ-साथ कुछ बहुप्रचारित मान्यताओं का पुरजोर खण्डन भी किया है और अपनी कुछ मौलिक स्थापनाऍं भी दी है। अत: जिन बड़े विमर्शकारों को पुस्तक से यह शिकायत है कि इसमें पिछड़ा वर्ग से संबंधित तथ्य और आंकड़ेबाजी है, वे इस अंतिम अध्याय को जरूर पढ़ें। ऐसे तो पुस्तक के कुल चारों अध्याय ही महत्वपूर्ण हैं। पहला अध्याय पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति और स्थिति से संबंधित है। दूसरे अध्याय में जाति और गोत्र के विवाद को तथ्यों और तर्कों के आलोक में सुलझाने का प्रयास किया है, साथ ही हिन्दूवाद की पोल खोली है।

तीसरे अध्याय में आरक्षण व्यवस्था का मूल्यांकन करते हुए लेखक इस निष्कर्ष तक पहुंचा है कि आरक्षण विरोधी सवर्ण इस बात पर ध्यान नहीं देते कि वे स्वयं सदियों से आरक्षण पाते आये हैं। सारे हिन्दूग्रन्थ इन सवर्णों को आरक्षण देते हैं। इसके अलावा पूंजी का आरक्षण भी इन्हीं सवर्णों को मिला है। सवर्णों को मिले इस आरक्षण के चलते पैदा हुई सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए दलितों और पिछड़ों को आरक्षण देना जरूरी हो जाता है। इसी अध्याय में लेखक ने पिछड़ा वर्ग के कुछ संतों और समाज सुधारकों का परिचय भी दिया है।

अंतिम अध्याय में पिछड़ा वर्ग की जातियों का विवेचन उनके पेशों के आधार पर किया है और मंडल कमीशन की रिपोर्ट का मूल्यांकन करते हुए एक प्रश्नोत्तरी भी दी है। और अंत में कुछ समाधान भी प्रस्तुत किये है। ये समाधान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ये लेखक की वस्तुपरकता के साथ-साथ उसकी पक्षधरता भी सुनिश्चित करते हैं। स्पष्ट है कि लेखक ब्राम्हणवाद विरोधी मुहिम और समता मूलक संघर्ष की अगली कतार में है।

रोजश कुमार चौहान

5बी/16एफ, गली नं.-16, गुरूद्वारा मौहल्ला,

मौजपुर, दिल्ली-110053

मो. 09278210309


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