Tuesday, March 8, 2016

कायस्थ जाति का इतिहास(पुस्‍तक अंश)

कायस्थ जाति का इतिहास
वर्तमान काल में कायस्थ जाति काफी शिक्षित तथा सुसंस्कृत मानी जाती है और हिन्दू समाज में अपना एक स्थान रखती है ।
उत्पत्ति -
शुक्राचार्य जी को उशना भी कहते हैं, अतः उनकी स्मृति को औशनस स्मृति कहते हैं। आईये देखें यह स्मृति कायस्थ की उत्पत्ति के बारे में क्या कहती है ।

वैश्यायां विप्रतश्चैय्र्यात कुम्भकारा प्रजायते ।
कुलाल वृत्या जीवेत्तु, नापिता वा भवन्त्यतः ।।32।।
कायस्थ इति जीवेत्तु वियरेच्च इतस्ततः ।
काकाल्लौल्यं यमात्क्रौयर्य स्थपते रथ कृन्तनम ।
आधक्षाराणि संगृहम कायस्थ इति कीर्तितः ।।34।।

अर्थः-ब्राह्मण के द्वारा वेश्या स्त्री में चोरी से (जारकर्म द्वारा) कुम्हार उत्पन्न होता है । वह मिट्टी के बर्तन आदि बनाकर अपनी जीविका करे अथवा इस प्रकार क्षौरकर्म करने वाला नाई उत्पन्न होता है । वह अपने को कायस्थ कहकर कायस्थ की जीवका करता हुआ ईधर-उधर भ्रमण करे । काक से चंचलता, यमराज से क्रूरता, थवई से काटना, इस प्रकार काक, यम और स्थापित, इन तीनों शब्द के आद्य अक्षर लेकर कायस्थ शब्द की बनावट कही गई, जो उक्त तीनों दोषों के घोतक है ।
उक्त श्लोकों से स्पष्ट है कि शुक्राचार्य कुम्हार नाई तथा कायस्थ की उत्पत्ति एक ही प्रकार से मानते हैं अथवा यों कहिए एक ही जाति के व्यक्तियों के ये जीविकानुसार तीन नाम हैं । व्यास स्मृति अध्याय 1 श्लोक 11-12 में कायस्थ को अन्यत्रों और गोमांस भक्षियों में परिणित किया है ।
वणिक-किरात्-कायस्थ-मालाकार-कुटुम्बिनः ।
वेरटोभेद-चाण्डाल-दास-श्वपच कोलकाः ।।
एतेऽन्त्यजाः समाख्याता ये चान्ये च ग्वाशनाः ।
एषा सम्भाषणात्स्नानं दर्शनादर्कवीक्षणम् ।।
अर्थः-बनिए, किरात, कायस्थ, माली, बंसफोड़, स्यारमार, कंजर, चाण्डाल, कंजर, चांडाल, बारी, भंगी और कोल, ये सब अन्त्यज कहे गये हैं । इनसे और दूसरे गांमांस भक्षियों से बात करने पर स्नान करने से और इनको देखने पर सूर्य का दर्शन करने से दोष दूर होता है । महर्षि याज्ञवल्क्य ने कायस्थों को चोर डाकुओं से अधिक खतरनाक बनाकर उनसे प्रजाओं की विशेष रक्षा करने का आदेश राजाओं को दिया है । याज्ञवल्क्य स्मृति, राजधर्म प्रकरण देखिए,
चाट-तस्कर-दुर्वृत-महासाहसिकादिभिः ।
पीऽयमानाः प्रजारक्षेत्कायस्थैश्च विशेषतः ।।336।।

अर्थः- राजा को उचित है कि उचक्के, चोर, दुराचारी, डाकू और विशेषकर कायस्थों से पीड़ा को प्राप्त हुई, अपनी प्रजा की रक्षा करें ।

यम द्वितीया के दिन इन कायस्थों के यहां चित्रगुप्त की पूजा तथा कथा होती है जिसका आधार पदम पुराण का उत्तर खण्ड है । यह खण्ड बाद में जोड़ी गई प्रतीत होती है, क्योंकि इसमें समाद्विस्थ ब्रह्माजी के शरीर से एक सावला मनुष्य अपने हाथों में कलम और दवात लिये हुए उत्पन्न हुआ और जाति विषय पूछने पर ब्रह्मा जी ने कहा तुम्हारा नाम चित्र गुप्त है और तुम मेरे काय (शरीर) से निकले हो, अतः तुम कायस्थ नाम से विख्यात हो जाओ और तुम धर्मराज की पुरी से सदा रहकर सभी मनुष्यों के शुभाशुभ कर्मों को धर्माधर्म के विचारर्थ लिखा करें । (चित्रगुप्तोत्पत्तिप्रकाशे)
दूसरी ओर कायस्थसंस्कारप्रकाशे में विवरण मिलता है ।

कायस्थः पंचमो वर्णों नतु शूद्र कथंचन ।
अतो भवेयुः संस्कार गर्भाधानादयो दश ।।4।।

अर्थात् - कायस्थ पांचवाँ वर्ण है कभी भी वह शूद्र नहीं है । अतः उसके गर्भाधानादि दश संस्कार होने चाहिए । 

यहां पांचवाँ वर्ण का जिक्र है, किन्तु मनु 10/4 में स्पष्ट उल्लेख है कि चैथा वर्ण शूद्र है पांचवाँ कोई वर्ण नहीं है । अतः विरोधाभाष की स्थिति इन पुराने धर्म ग्रन्थ में किस वजह से आई यह विचारणीय है ।
आईये देखें श्री नवल वियोगी ‘‘सिन्धु-घाटी की सभ्यता के सृजनकर्ता शूद्र और वणिक’’ नामक अपनी किताब (पृ.क्र.-142) में क्या कहा है ।
‘‘सिन्धु देश के युद्ध में पराजित होने के बाद वध कर दिये वीरों की संतान का सम्बन्ध कायस्थ वर्ग से भी था, जिन्हें आर्यों ने गुलाम बनाकर घरों में रख लिया था । यही वह वर्ग था जिसने आर्य पुरोहितों तथा क्षत्रिय राजाओं के घरों में नौकरों का काम किया । प्रसिद्ध नरवंश शास्त्री सर हिरवर्ट होप रिसले  ‘‘बंगाल की कायस्थ जाति के बारे में अपने विचार रखते हैं - बंगाल का शार्गिद पेशा पहचाना वर्ग है जिनकी उत्पत्ति अवैध सन्तान के रूप में बतलाई जाती है । आज भी इनकी संख्या में वृद्धि हो रही है । उड़ीसा की उच्च जातियों तथा बंगाल में आई कायस्थ जाति में आज भी परम्परा है, वे शुद्ध निम्न जातियों चासा तथा भंडारी की स्त्रियों को घरों में नौकरानी रख लेते हैं, क्योंकि उनमें विधवा विवाह की परिपाटी नहीं । इन्हीं सेविकाओं की संतति शार्गिद पेशा नाम से जानी जाती है । कायस्थ शार्गिद पेशा, करन शार्गिद पेशा के साथ शादी व्यवहार नहीं करते न ही राजपूत शार्गिद पेशा, कायस्थ शार्गिद पेशाओं से करते हैं । मगर वे करन के साथ शादी करते हैं।’’
यानी उपरोक्त तथ्यों का अध्ययन करें तो इस निष्कर्ष पर निकला जा सकता है कि कायस्थ कभी भी सवर्ण जाति नहीं रही है । इस संबंध में प्रमोद कुमार हंसमें एवं दिलचस्प तथ्य को उजागर करते हैं वे कहते हैं -‘‘सवाल यह है कि उस हिन्दू समाज में पत्थरों, शिलाओं व ताम्रपत्रों आदि पर लिखने का कार्य कौन करता था । जब प्रत्येक प्रकार के कार्य के लिये एक जाति थी तो लिखने के लिये भी एक जाति अवश्य रही होगी । यदि ऐसा ही था तो निःसंदेह वह जाति और कोई नहीं कायस्थ जाति ही थी । इसका सीधा सा अर्थ यही है कि लिखने की कला से यदि कायस्थ जाति ही जुड़ी थी तो वह किसी भी प्रकार आर्यों के तीन वर्णों में से एक नहीं थी, क्योंकि आर्यों को लिखने की कला का विकास 600 से 300 ई. पूर्व के मध्य ही हुआ, अर्थात् 600 ई.पू. से पहले कायस्थ जाति थी ही नहीं। इतिहासकारों का मानना यह है कि आर्यों के आने के बाद हड़प्पावासी यह कला भूल गए और बाद में फिर 600 ई.पू. के आसपास इसका पुनः विकास प्रारंभ हुआ, परन्तु मानव इतिहास में सामान्यतः ऐसा उदाहरण नहीं प्राप्त होता है कि कला का अविष्कार करने के बाद मानव समाज वह कला थोड़े समय के लिये पूरी तरह भूल गया हो । सीधा-सा अर्थ है कि लेखन कला से अपरिचित विजेता आर्यों ने पराजित हड़प्पा के लोगों द्वारा इस लेखन कला के प्रयोग करने पर प्रतिबंध लगाया होगा । यही कारण है कि लंबे समय तक इस कला का सार्वजनिक प्रयोग बन्द रहा और इतिहासकारों ने यह मान लिया कि उस दौर में लोग वह कला भूल गए, जबकि वास्तव में उस कला से जुड़े परिवारों ने उसे तब तक संजोकर रखा होगा, जब तक उसका सार्वजनिक प्रयोग संभव नहीं हो गया । जो भी हो यह तो तय है कि लेखन कला का पुनः प्रारंभ जब भी हुआ होगा, उसे कायस्थ नामक जाति ने ही प्रारंभ किया होगा ।’’
वास्तव में इस सिद्धांत की उत्पत्ति इतिहासकारों के इस मान्यता के आधार पर उपजी कि ‘‘आर्य कबिलों में लेखन कला की अज्ञानता के साथ-साथ वेदों को स्मृतियों में संजोने की अभूतपूर्व कला विकसित थी,’’ लेकिन इन तथ्यों को बारिकी से जांचने की आवश्यकता किसी ने भी नहीं समझी । इस संबंध में पहला प्रश्न यह उठता है कि आर्यों का वेदों की ऋचाओं के निर्माण की आवश्यकता क्यों पड़ी, यदि हम आर्यों के पहले वेद ऋग्वेद की चर्चा करें तो पाते हैं कि ऋग्वेद - युद्ध की बातें एवं गायों तथा स्त्रियों की मांग जैसी बातों से अटे पड़े हैं, तो फिर उन्हें इसे स्मृति में रखने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? इस संबंध में दूसरा प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में भाषा तथा लिपि का ज्ञान विकसित नहीं हुआ था ?
आईये प्रथम प्रश्न के उत्तर पर चर्चा करें । वास्तव में पहले प्रश्न का जवाब दूसरे प्रश्न के जवाब में छुपा है। हमारी यह मान्यता है कि वेद काल में लिपि का ज्ञान नहीं था । अपने-आप में एक झूठी मान्यता है । इसके निम्न कारण है:-

(1)    वेदों की ऋचाएँ, उच्चारण एवं शब्द विन्यास एक विकसित भाषा के गुण प्रदर्शित करती है । ये विकास बिना लिपियों के संभव नहीं है न ही ऐसा विकास किसी एक लिपिकीय पीढ़ी से संभव है ।

(2)    यह माना जा सकता है कि यज्ञ के दौरान इन ऋचाओं का उच्चारण किया जाता था, किन्तु इसे याद रखने की आवश्यकता इसके विस्मृत हो जाने के भय से नहीं थी, क्योंकि यदि हम लिपि का विकास चित्रकला के विकास से प्रारंभ हुआ मानते हैं तो लिपि के प्रारंभिक अवस्था में ही इन कठिन भाषा को लिपीबद्ध करना किसी करिश्मे से कम नहीं रहा होगा ।

अतःयह तथ्य की वेद काल में लिपी का जन्म नहीं हुआ था अपने-आप में एक निराधार तथ्य है । प्रमोद कुमार का यह तर्क कि चित्रलिपियों के विकास में सहभागी होने के कारण ही कायस्थ चित्रगुप्त की पूजा करते हैं , तर्क संगत लगता है तथा यह तर्क इस बात की पुष्टि करता है कि किसी खास जाति ने ही इस कला का विकास किया होगा । चूंकि भारत में सभी प्रकार के कार्य कोई खास जाति में बंटित था । उस समय सोने के जेवरात बनाने वाले तथा लोहे के औजार बनाने वालों को ज्यादा महत्व मिलता रहा होगा । चूंकि लिपिकीय कला को राजनैनिक का सामाजिक मांग कम थी, इसलिये ये जातियां जो इस कला को अपनी जीविका के रूप में अपनाती थी । निश्चित रूप से उनका महत्व कम ही रहा होगा । इसलिये ये जाति भी (आश्य कायस्थ जाति से है) दोयम दर्जे की स्थिति में रही । चूंकि आर्य व्यवस्था ने पुजारी, सैन्यकर्मी तथा व्यवसायी को छोड़कर सभी को शूद्र घोषित कर रखा था, इसलिये वे सारे कलाकार, शिल्पकार, लेखक, वैज्ञानिक, शूद्र में ही गिने गये । ये शूद्र भारत के मूल निवासी हैं ।

पुस्‍तक अंश- पृष्‍ठ क्रमांक 49 अध्‍याय दो जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिन्‍दू करण पुस्‍तक का नाम- आधुनिक भारत में पिछडा वर्ग(2010) लेखक संजीव खुदशाह प्रकाशक- शिल्‍पायन प्रकाशन नई दिल्‍ली