देशबंधु न्यूज पेपर दिनांक १७ अगस्त २०१०
पुस्तक समीक्षा
पिछड़े वर्ग की जांच पड़ताल
जीवेश प्रभाकर
भारतीय समाज आज भी छोटे-छोटे जातीय समुदायों में बटां हुआ है। वर्तमान परिस्थितियों में यह लगातार जातियों के दीर्घ समुच्चयों से छिटककर अनेक उपजातियों के लघु समुच्चयों में बंटता जा रहा है। किसी भी समाज का अध्ययन निश्चित रूप से उनके उत्थान के उद्धेश्य से ही किया जाता है। प्राचीन काल से ही भारत में जातिगत व्यवस्था को लेकर अनेक प्रश्न खड़े होते रहे है या किए जाते रहे है। इतिहासकारों एवं विद्वानों में वर्ण व्यवस्था को लेकर प्राचीन काल से ही विवाद एवं संघर्ष की स्थिति बनी रही, यहां तक कि वर्णो के वर्गीकरण क प्रक्रिया भी समानान्तर रूप से चलती रही। कहा जाता है कि इतिहास हमारे दिमाग में होता है जो वर्तमान परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप भविष्य के लिए लिखा जाता है। भारत में स्वतंत्रता के पूर्व से ही समाज के पिछड़े वर्ग का वर्गीकरण प्रारंभ हुआ। इसका परिणाम वृहत्तर रूप में आंधुनिक भारत में देखने मिल रहा है। इसी पिछड़ा वर्ग में बढ़ती वर्णेत्तरीकरण की प्रक्रिया और पिछड़े वर्ग की उत्पत्ती से लेकर वर्तमान स्थिति को रेखांकित करती है संजीव खुदशाह की पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग``। जैसा कि पुस्तक के उपशीर्षक से स्पष्ट रूप से कहा गया है (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकाताएं) उसी के अनुरूप यह पुस्तक चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की मीमांसा करती है।
लेखक ने अपनी प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि यह एक शोध प्रबंध है। शोध प्रकल्प के रूप में लेखक ने काफी संदर्भ सामग्री एकत्रित की है। इन संदर्भो में वेद, स्मृति ग्रंथो से लेकर आधुनिक इतिहासकारों एवं विचारकों के उद्धहरण व मान्यताएं शामिल है।
मुख्य रूप से चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की स्थिति की पड़ताल करती इस पुस्तक का प्रथम अध्याय पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति और इस वर्ग के वर्गीकरण पर है। प्रथम अध्याय में मानव की उत्पत्ति पर विभिन्न धार्मिक व वैज्ञानिक मान्यताओं की चर्चा है असमें हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था के प्रारंभीक सोपान का उल्लेख है। डॉ. अम्बेडकर द्वारा प्रतिस्थापित सिर्फ तीन वर्ण को मान्यता देते हुए लेखक संपूर्ण पिछड़े वर्ग को चौथे वर्ण में शामिल करता है। इस मान्यता को आगे बढ़ाते हुए प्रथम अध्याय में चौथे वर्ण में कार्य के आधार पर उत्पादक व अनुत्पादक जातियों के रूप में चौथे वर्ण का वर्गीकरण किया गया है एवं उनके उत्पादक मूल्य के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था में उन्हे पृश्य या अस्पृश्य माना गया है।
प्रारंभिक अवधारणा के पश्चात पिछड़े वर्ग में शामिल विभिन्न पिछड़ी जातियों के गोत्र को लेकर मान्यताओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। मनुस्मृति व्दारा निर्धारित विभिन्न वर्णो के अन्तरसंबंधों से उत्पन्न संकर जातियों की विस्तृत सारणी दी गई है। रक्त मिश्रण के कारण एवं इसके उत्पादों के वर्ण व वर्ग निर्धारण की पौराणिक मान्यताओं का विस्तार से अध्ययन कर उसकी पड़ताल की गई है जो काफी रोचक व जानकारीपूर्ण है। इसके साथ ही वर्तमान में शक्तिशाली और संपन्न जातियों कायस्थ, मराठा एवं कुछ अन्य पिछड़ी जातियों व्दारा स्वयं को गोत्र के आधार पर उच्च वर्ण में शामिल किए जाने की अवधारणा पर प्रश्न खड़े किए है। इस अध्याय में सदर्भो का हवाला देते हुए लोक मान्य देवी देवताओं को सवर्णो द्वारा स्वीकार किए जाने के पीछे नीहित स्वार्थ व समाज पर उच्चवर्ण का दबदवा बनाए रखने की साजिश पर प्रकाश डाला गया है।
उपलब्ध गजट एवं अभिलेखों के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अंग्रजों द्वारा अपनी सुविधा हेतु पहली बार जातीय आधार पर भारत की जनगणना करवाई गई। दरअसल १८५७ के संग्राम के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी के स्थान पर भारत जब सीधे ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन हुआ तो प्रशासनिक व्यवस्था अपने अनुरूप करने के उद्धेश्य से अंग्रेजों ने भारतीय समाज को जातीय आधार पर वर्गीकृत कर दस्तावेजीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ की। इस दौर में शासक की निगाह में उच्च स्थान प्राप्त करने के उद्धेश्य से सवर्णो के साथ साथ पिछड़े वर्गो में भी जातिय अस्मिता और प्रतिष्ठा के गौरव गान की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। लेखक ने अपने शोध में यह बताया है कि पौराणिक काल में लगातार पिछड़े वर्ग को दलित पतित रखने की कोशिशों को अंग्रेजो ने विराम लगाया और मानव को मानव समझते हुए भारतीय समाज को समतामूलक बनाने की दिशा में सार्थक पहल प्रारंभ की। हालांकि इस पर कुछ विद्वानों की राय यह भी है कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक बंटवारे के साथ-साथ समाज को जातिय आधार पर बांटने पर यह कुत्सित प्रयास था। इस संदर्भ में लेखक ने डॉ. अम्बेडकर व महात्मा गांधी के पूना पैक्ट का भी जिक्र किया है। पूना पैक्ट आज भी कई दलित, पिछड़े वर्ग एवं कई सामान्य वर्ग के विचारकों की निगाह में पिछड़ो की हार माना जाता है जबकि वृहत्तर रूप से पूना पैक्ट हिन्दोस्तान को जातीय आधार पर बंटवारे से बचाने की दिशा में उठाया गया महत्पूण कदम करार दिया जाता है। आधुनिक संदर्भ में यह दुखद है कि एक बार फिर जातीय अस्मिता को वर्तमान सत्ताधारियों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है।
संजीव खुदशाह अपनी पुस्तक के इस अध्याय में आरक्षण व्यवस्था की पड़ताल करते हुए विभिन्न जातियों की अधीकृत सूची के साथ ही इस सूची में शामिल होने आतुर जातियों की चर्चा भी करते है। यहां लेखक १९३१ में अंग्रेजों द्वारार जातीय आधार पर करवाई गई जनगणना के आंकड़े नही उद्धत करते जो पुस्तक को और मजबूती प्रदान करते है। जबकि प्रथम अध्याय में अंग्रेजों द्वारा १८७२ में करवाए गए जातीय दस्तावेजों का उल्लेख किया गया है। दरअसल यह बात काबिले गौर हे कि ये आयोग स्वतंत्र भारत में गाठित किए गए जो कि आधुनिक भारत के निर्माण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे है। इस प्रक्रिया में समाज का लगभग हर पिछड़ा तबका अपनी उन्नति और प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि अगड़ी जाति के कई संवेदनशील लोग भी इस आंदोलन में पिछड़े वर्ग के साथ है। लेखक की किताब भी उन्ही लोगों को समर्पित है जो भारतीय समाज में मनुष्यों को समान दर्जा दिलाए जाने के लिए संघर्षरत है। यह समर्पण उनकी मंशा व मानसिकता को पाठकों के सामने उद्धाटित करता है।
भारतीय समाज के पिछड़े वर्ग में राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं का आगाज गुलामी के दौर में ही दक्षिण में हो चुका था मगर उत्तर भारत में लम्बे समय तक कांग्रेस राजनैतिक क्षेत्र में पिछड़े वर्ग की हिमायती के रूप में अपना स्थान बनाए रखीं । मण्डल अयोग के गठन एवं उसकी सिफारिशों के पश्चात कांशीराम ने उन सिफारिशों के क्रियान्वयन हेतु पिछड़े वर्ग को संगठित कर नए समीकरण की शुरूवात की। इस पुस्तक में इस जागृति और आंदोलन पर भी चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि कांशीराम के उदय से भारतीय राजनीति में न सिर्फ हिन्दू बल्कि मुसलमानों के भी पिछड़े वर्ग की प्रतिष्ठा पुन:स्थापित होने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। दरअसल आदिकाल से उत्तर भारत में सामाजिक आंदोलन कभी भी व्यापक रूप से परिर्वतन कर पाने में सक्षम नहीं रहे। उत्तर भारत में राजनैतिक सत्ता ही जातीय प्रतिष्ठा या सामाजिक व्यवस्था में जातीय समीकरण के उत्थान व पतन की कारक नही रही। इस बात पर लेखक ने कुछ पिछड़ी जनजातियों की शासक व विजयी जातियों एवं समुदाय के वीर पुरूषों का जिक्र किया है।
अंतिम अध्याय में लेखक पिछड़े वर्ग में शामिल जातियों की पड़ताल करते हुए एक बार फिर कार्य के आधार पर जातियों की व्याख्या एवं वर्गीकरण करते हुए मण्डल आयोग की सिफारिशों के अनुसार अधीकृत रूप में पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों का विस्तृत विवरण देते हैं। इस सूची में सभी धर्मो एवं समुदाय की पिछड़ी जातियों का विवरण है। इसी अध्याय में वे पिछड़े वर्ग की समस्याओं के कारणों एवं उसके समाधान की संक्षिप्त चर्चा करते है। आरक्षण के पक्ष विपक्ष में प्रश्नोत्तरी के माध्यम से चर्चा की गई है।
संजीव खुदशाह छत्तीसगढ़ के है। इस बात का उल्लेख दो कारणों से आवश्यक सा लगता है। पहला इसलिए कि पूरी पुस्तक की भाषा बहुत सौम्य और विनय प्रधान है। स्वर कहीं भी आक्रामक या आरोपात्मक नही होते जबकि हाल के वर्षो में इस तरह का अधिकतर लेखन आक्रामक ही रहा है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण इस क्षेत्र से होने के बावजूद लेखक ने इस पिछड़े वर्ग की इस वृहत्तर शोधपरक पुस्तक में स्थानीयता की लगभग अनदेखी की गई है। हालांकि उनकी पुस्तक प्रांतीय या क्षेत्रीय सीमाओं में बांधकर नही देखी जा सकती।
आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग पुस्तक के लेखक ने बहुत परिश्रम व लगन से शोध कार्य किया है। यह पुस्तक संजीव खुदशाह की पूर्व कृति ''सफाई कामगार समुदाय`` की अगली कड़ी के रूप में सामने आई है। ''सफाई कामगार समुदाय`` काफी चर्चित पुस्तक रही है। यह पुस्तक उसी श्रंखला को आगे बढ़ाते हुए पिछड़े वर्ग की वर्तमान स्थिति को उजागर करती है। लेखक ने सभी वर्ण व वर्ग की व्याख्या में पूरी तटस्थता बरती हैं। उनकी खोजपूर्ण पुस्तक में हालांकि सभी तथ्यों एवं उद्धहरण को शामिल किया जा पाना संभव नही हो सकता फिर भी यह एक गंभीर विमर्श की मगर पठनीय पुस्तक है। प्रथम कृति ''सफाई कामगार समुदाय`` के पश्चात लेखक संजीव खुदशाह की ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` लम्बे समय के अंतराल के पश्चात आई है मगर इस पुस्तक के लिए की गई मेहनत के परिणामस्वरूप शोधार्थियों के साथ ही आम पाठकों के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।
जीवेश प्रभाकर
रोहिणीपुरम-२
डगनीया रायपुर छत्तीसगढ़
492001
मो. 09425506574
Mr. Rameshji, I went through a critique on Snjeev Khudsha's book. It creates eagerness about the book. Thanks for receiving me an importance of this book.
ReplyDelete----------- Prof. Shrawan Deore, Nasik, Maharashtra
Mobi. 94227 88546
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