पिछड़ा वर्ग: विगत-अगत
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टेकचंद
17 नवंबर 2011 के ‘नव भारत टाइम्स’ के मुखपृष्ठ की खबर- ‘ओ.बी.सी. में 100 नई जातियां।’
18 नवंबर 2011 के ‘जनसत्ता’ के मुखपृष्ठ की खबर- ‘मलाईदार तबके के लिए
आय सीमा दोगुनी करने की सिफारिष।’
3 और 5 दिसंबर के ‘नई दुनिया’ की खबर -‘पिछड़े मुस्लिम वर्ग
को आरक्षण।’
पहली खबर में बीस राज्यों
के उम्मीदावारों को फायदा मिलने की बात की गई है।
दूसरी खबर में ओ.बी.सी. के लिए बनी ‘क्रीमी लेयर’ (मलाईदार तबके) की सीमा दोगुनी कर इसे सालाना
नौ लाख रूपये करने की सिफारिष की है। तीसरी खबर से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ‘मंडल आयोग’ के तहत सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी में अलग से 5-6 प्रतिषत
कोटा तय करने जा रही है।
तीनों खबरों को और
घोषित किया जाने वाले ‘मुहुर्त’ को देखकर लगता है कि केंन्द्र सरकार आगामी
चुनावों को ठीक उसी तरह ‘इन्फ्लूएंस’ करना चाहती है जैसे छठा वेतन आयोग लागू कर
दिया था। बहरहाल! ऐसे में अन्य पिछड़ा वर्ग को जानना बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। मोटे
तौर पर देखे तो आज यह सामाजिक वर्ग से बढ़कर राजनीतिक अवधारणा ज्यादा लगी है। जहां-तहां
राजनीतिक मंचों से उनके हितों की बात की जा रही है, लेकिन उसकी विगत स्थिति,
इतिहास और भविष्य को समझने-समझाने के प्रयास कम ही दिखाई देते है।
छलित व पिछड़े वर्गों
के साथ एक विचित्र सी स्थिति है कि साधन संपन्न होते ही वे भी वेदों, पुराणों की तरफ मुड़ने लगते है। जाति नामक
अवधारणा से सदियों पीड़ित, शोषित, रहने के बावजूद अवसर मिलते ही स्वयं को श्रेष्ठ
ठहराना और अपने नीचे एक आध छोटी जाति टोह लेते है। लोग, व्यक्ति, वर्ग अथवा ज्ञान की तह में जाति के लिए मनुस्मृति, शतपथ बा्रम्हण इत्यादि को आधार बनाते है।
ऐसे में रचनाएं भी आऐंगी तो कुछ ऐसी--
ऑरजिन ऑफ सूद्र ऐ क्रिटिकल
एनालसेज’: रामरतन सूद
‘चमार जाति का गौरवशाली इतिहास’: सत्तनाम सिंह
‘जाट जाति का स्वर्णिम इतिहास’: इत्यादि
डपर्युक्त जातियों
तथा ऐसी ही अन्य जातियों को तथाकथित गौरव ‘स्वर्णिम युग’ का अहसास करवाने के लिए उसी ब्राम्हणवादी
ग्रंथ परंपरा का ‘संदर्भ पुस्तक’ के तौर पर प्रयोग किया जाता है, जिनकी रचना का उद्देष्य ब्राम्हण जाति को
श्रेष्ठ व अन्य के बीच स्वामी सेवक का संबंध विकसित करना था। दूसरी और वैज्ञानिक नृविज्ञान, सामाज विज्ञान, अर्थशास्त्र का उपयोग लगभग नही किया जाता
है।
ऐसे परिदृष्य में एक
महत्वपूर्ण शोध पढ़ने का अवसर मिलता है। ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा
वर्ग’ (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं) लेखक और शोधार्थी
‘संजीव खुदषाह’ ने इस पुस्तक में पिछड़ा वर्ग के विगत-अगत
पर गंभीर शोध किया है। उनकी ‘सफाई कामगार समुदाय’ पुस्तक पहले ही चर्चित हो चुकि है। प्रस्तुत-पुस्तक
में पिछड़ा वर्ग की उन वास्तविकताओं को उभारा है, जो स्वयं और अन्यों द्वारा, गढ़े-रचे पूर्वाग्रहों,
मिथकों में दब चुकी थी । कुल जमा 140 पृष्ठों व चार अध्याय में ‘पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, स्थिति एवं वर्गीकरण’ में संजीव पिछड़ा वर्ग की वास्तविकता बयां
करते है-‘‘पिछड़ा वर्ग एक ऐसा
कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है न ही अस्पृष्य या आदिवासी। इसी बीच की स्थिति के कारण
न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका न ही निम्नतम होने का फायदा।’’ (पृष्ठ 14) सदैव सवर्ण-अवर्ण के बीच झूलते
पिछड़ा वर्ग में संजीव चेतना की कमी मानते हैं । और चेतना आती है वैज्ञानिक सोच से।
पिछड़ा वर्ग आज तक धार्मिक ग्रंथों में अपनी जड़े सींचने का प्रयास करता रहा है। जहां
अमुक देवता के अमुक-अमुक अंग से फलां-फलां जाति के मनुष्य की उत्पत्ति के मिथक पर आज
भी पुरोहित वर्ग जान देता है। धार्मिक ग्रंथों की मानव उत्पत्ति संबंधी एक-एक मान्यता
का संजीव तार्किक विष्लेषण करते है और पाते है कि स्वयं हिंदू धर्म-ग्रंथ मानव उत्पत्ति
को ऐकर एकमत नही है।
मनव उत्पत्ति की वैज्ञानिक
खोजों में संजीव पांच सौ (500) करोड़ वर्ष पूर्व के अजीव काल अठारह करोड़ वर्ष पूर्व
के जुरेसिककाल, नवपाषाण, धातुकाल के आकड़ों का खाका प्रसतुतकर मनुष्य
की उत्पत्ति और विकास को समझाते है। पिछड़ा वर्ग की सामाजिक स्थिति को परिभाषित करते
हुए संजीव लिखते है कि -‘‘हिंदू धर्म में से
यदि ब्राम्हण क्षत्रिय एवं वैष्य को निकाल दे तो शेष वर्ग ‘षूद्र’ को हम पिछड़ा वर्ग कह सकते है, इसमें अतिषूद्र शामिल नही है। पिछड़ा वर्ग वर्षो से तिरस्कृत
होता आया बल्कि यों कहें कि हाषिए पर रहा तो ज्यादा बेहतर होगा जिसे सवर्ण न हो पाने
का क्षोभ है तो अस्पृष्य न होने का गुमान भी। वर्षो से हिंदू सभ्यता एवं संस्कृति को
संजोए यह वर्ग आज भी अपने हस्ताक्षर को बेताब है। यदि हम पिछड़ा वर्ग को रेखांकित करें
तो पाएंगे कि वर्ण-व्यवस्था का एक वर्ण शूद्र,
जिनमें कुछ नई एवं उच्च समझी जाने वाली जातियां भी शामिल है जो सवर्ण होने का दावा
करती है, किंतु सवर्ण इन्हे
अपने में शामिल करने को तैयार नहीं है।’’ (वही 22)
यह ‘अस्पृश्य न होने का गुमान’ ‘सवर्ण होने का दावा’ महत्वपूर्ण है। क्योकि इन्ही कारणों से पिछड़ा
वर्ग की मानसिकता मध्यवर्ग जैसी हो चली है। उपर वाले इन्हे नीचे धकेलेंगंे और नीचे
ये जाना नही चाहते। इसी संदर्भ में 28 नवंबर 2011 को दलित नेता उदितराज के नेतृत्व
में हुई रैली के पर्चे को देखना जरूरी है। वे लिखते है कि -‘‘मंडल कमीषन की लड़ाई मूलतः दलितों ने ही लड़ी
थी और जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री वी.पी.सिंह ने इसे लागू करने की घोषणा की तब जाकर
कुछ पिछड़े वर्ग के लोग समर्थन में आए।’’
ठसी तरह की घटनाएं
सन् 2004 में उस समय हुई जब मेडिकल में ओ.बी.सी. को लागू किया गया और उसका देशव्यापी
विरोध किया गया। विरोध दलितों आदिवासियों को झेलना पड़ा था, क्योकि ओ.बी.सी. वर्ग तो तब भी- इसी टू बी
और नॉट बी. की उहापोह भरी स्थिति में था। उनको लग रहा था कि आरक्षण की आरक्षण की मांग
करने से वो शूद्रों अस्पृष्यों में गिने जाने लगेगें। इसका कारण समझ में आता है जब
संजीव ओ.बी.सी. जातियों का वर्गीकरण करते है। वे इन्हे खेत कार्य, पषुपालन, कपड़े का काम, वत्रन, लोहा,
धातु, तिलहन का काम, मछली पकड़ने तथा इस्कार जैसे लगभग 10-11 वर्गों
में मानते है। दूसरी ओर चमार, सफाई कामगार, वैष्य, नाई, धोबी, मल्लाह, वेद्य इत्यादि को ‘अनुत्पादक’ किंतु सृजनात्मक माना है। सृजन आधुनिक युग
में उत्पादन ही है।
ध्यान देने वाली बात
यह है कि ये सब जातियां पिछड़ी तो है किंतु साफ-सफाई खाल-मांस इत्यादि का काम करने वाली
अनुसूचित जातियों के मुकाबले कुछ ‘उन्नत’ है। ऐसे में इन्हे स्वयं को ‘उच्च’
साबित करने के लिए अच्छा-खासा आधार मिल जाता है। उपर से सवर्णो के लिए वे थोड़े
कम अस्पृष्य है। उनके काम धंधे भी ऐसे है जो सवर्णो के सीधे ‘टच’
में है। जैसे माली (सैनी) के फूल-फसल से,
अहीर यादव के डंगरों से कुम्हार के बर्तन से , लोहार के औजार से , सुनार के गहने से, नाई के हाथ से केवट की नाव से, बढ़ई के काम से सवर्ण को उतनी घृणा नही होती
जितनी मेहत्तर के मैला ढोने से, चमार द्वारा मृत पशुओं
को उठाने, खाल खीचने से होती
है। संभवतः वे सवर्णो (उपर के तीनों वर्ण) के सीधे संपर्क में भी उतने नही रहते जितने
ओ. बी.सी. वर्ग की जातियां । इसी कारण ओ.बी.सी.जातियों ने ब्राम्हणवादी कर्मकांड पूजा-पाठ
रह-सहन और सबसे ज्यादा हिंन्दू धार्मिक ग्रंथों की संस्कृति को लगभग ओढ़ लिया। वे उसमें
धंस गए। उसी शतुर्मुर्ग की तरह, जो खतरा होने पर मुंडी
तो रेत में छिपा लेता है लेकिन पूरा शरीर षिकारी को सौंप देता है। क्या आज पिछड़े वर्ग
ने अपनी ताकत, राजनीति और अस्तित्व
को दलितों से अलगाकर सवर्ण षिकारियों को नहीं सौंप-सा दिया है? संजीव तफसील से ओ.बी.सी. वर्ग द्वारा, पूजे जा रहे धार्मिक ग्रंथों के संदर्भो से
ही बताते है कि -‘‘क्षत्रिय पिता व ब्राम्हण
माता से सूत, शूद्र पिता व ब्राम्हण
माता से चांडाल उत्पन्न होता है।’’ इन सभी स्मृति एवं
पुराणों के आधार पर कोई भी पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति अपने उपर गर्व नही कर सकता। यदि वे
इन धर्म-ग्रंथों को मान्यता देते है, तो उन्हे यह भी मानना
होगा कि वे किसी न किसी की अवैध संतान की संतति
है। इसी तरह ‘जाति एवं गोत्र विवाद
तथा हिन्दूकरण’ नामक अध्याय में वे
उन जातियों की वास्तविकता बताते है, जो सवर्ण होनक का दावा
करती है किन्तु हिंदु धर्म ग्रंथ उनके प्रति कटुता से भरे पड़े है। कायस्थ, मराठा, भूमिहार, सूद आदि ऐसी विवादास्पद
जातियां है। इसी अध्याय में गोत्रों, देवों व जातियों के
हिन्दूकरण को शोधपरक ढंग से समझाया गया है।
लेखक लिखता है कि
-‘‘ये पिछड़े वर्ग की जातियां जिन धर्म ग्रंथों
पर अकाट्य श्रद्धा रखती है, जिनकी दिन रात स्तुति
करती है, वे इन्हे इन्ही सवर्णो
(ब्राम्हण, क्षत्रिय, वेष्य) की नाजायज संतान ठहराते है। आज हिंदू
धर्म के बड़े पोषक के रूप् में पिछड़ा वर्ग शामिल है, जिनमें हजारों-हजार जातियां है। वे सभी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार
शूद्र में आति है।’’ (वही 43)
हम देख सकते हे कि
किस प्रकार आरक्षण के लिए तो पिछड़ा वर्ग आवाज उठाता है किंतु अनुसूचित जाति व जनजाति
के प्रति उनमें न सहानुभूति है, न सहयोग की भावना।
मंडल कमीषन हो या एससी/एसटी का विवाद सवर्णो व प्रतिक्रियावादियों का कोपभाजन
50/57 को बनना पड़ा था। यही कारण है कि पिछड़ा वर्ग आचार-विचार, संस्कार-संस्कृति कर्मकांड से पूरा सवर्ण
हिंन्दूवादी बना रहेगा। साधन-संपन्न होते ही वह स्वयं को सवर्ण हिंन्दू
मानने-मनवाले के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देता है। लेखक ऐतिहासिक तथ्य देते हुए
मराठा षिवाजी द्वारा 6 जून 1674 को वंषावली, जाति सुधारने
व्रातय स्तोम उपनयन तथा राज्यभिषेक का उदाहरण देता हैः ‘यदि मान भी ले कि वंषावली सच्ची थी फिर
भी षिवाजी को उंची जाति में प्रवेष करने के लिए (सामाजिक स्वीकृति) एड़ी-चोटी एक
करनी पड़ी। साथ ही अपने राज्याभिषंेक के समय रूपये पानी की तरह बहाने पड़े जिसमें
गागाभाट को 7000 हण दिए गए तथा षिवाजी को चांदी,तांबा,लोहा आदि से और
कपूर, नमक, शक्कर, मक्खन, विभिन्न फलों, सुपारी आदि से भी तौला गया, जिसके मूल्य को ब्राम्हण में वितरित कर
दिया गया। कुल खर्चा 1,50,000 हण था।’(वही 48) अब यदि उस
वक्त के हिसाब से लगाएं तो एक हण तीन रूपये मूल्य का था। अर्थात आज के हिसाब से करोड़ों
रूपये। इस प्रकार जब शासकों की यह हालत थी तो आम जनता की मानसिक स्थिति समझी जा सकती
है।
जाति के हिन्दूकरण
के साथ-साथ संजीव ‘रक्त सम्मिश्रण’ तथा गोत्रों के बदलाव, ग्रहण, त्याग व हिंदूकरण पर भी तथ्यात्मक जानकारी देते है। इनमें महत्वपूर्ण
है-स्थानीय देवी-देवताओं का हिन्दूकरण। वे तफसील से समझाते हे कि किस प्रकार ब्राम्हणों
ने अनार्य देव षिव शक्ति गणपति आदि का हिन्दूकरण कर दिया। यहां तक कि बुध्द को भी विष्णु
का दसवां अवतार घोषित कर दिया। उड़ीसा, पुरी जगन्नाथ का उदाहरण
बेहद दिलचस्प है कि आदिवासियों के आराध्यदेव जगन्नाथ को इस प्रकार वैदिकों के बंधन
में जकड़ा गया कि-‘‘राजाओं के प्रषासनिक
हितों की रक्षा करने वाले वैदिकों ने आसानी से जगन्नाथ पर धार्मिक कब्जा कर लिया और
दलितों को मंदिर से बाहर कर दिया। जगन्नाथ के दर्षन आम जनता के लिए दुलर्भ हो गए।’’(वही 70) इसी संदर्भ में हम साई बाबा (शिरडी)
वैष्णों देवी, केदारनाथ, कैलाष इत्यादि व गुड़गांव, बेरी जैसे स्थानीय देव-देवियों के हिन्दूकरण
और ब्राम्हणीकरण को भी देख सकते है।
तीसरे अध्याय ‘विकास यात्रा के विभिन्न सोपान’ में कई महत्वपूर्ण बिंदुओं का विष्लेषण किया
गया है। जिससे लेखक की गहन शोध दृष्टि का पता चलता है। जैसे- जाति आधारित आरक्षण आदिकाल
से ही शुरू हो जाता है। ‘‘साईमन कमीशन दलित वर्णो
के लिए भी संवैधानिक संरक्षणों की सिफारिश करने वाला था, किंतु कांग्रेस तथा हिंदू महासभा ने इसका
विरोध किया।’’(वही 77)
काका कालेलकर आयोग
की रिपोर्ट में कहा गया कि ‘पिछड़ेपन का दोष इन्ही
जातियों का है,’ ‘सरकारी नौकरियों में
आरक्षण गलत है,’ ‘पिछड़ेपन की शिनाख्त
से जाति-व्यवस्था स्थायी तौर पर हावी रहेगी’(वही 80)। इनके अतिरिक्त
मंडल आयोग की सिफारिषों पर विस्तार से बात की गई है। आरक्षण विरोधी बुद्धिजीवियों पर
तीखे प्रष्न दागे गए है, जैसे-‘मैला साफ करने की नौकरी में आरक्षण पर दलितों
का विरोध क्यो नही करते ?’
‘दलित एवं पिछड़ा वर्ग के बुद्धिजिवी को पंडित का दर्जा क्यों
नही देते?’
‘मैनेजमेंट शीट क्या है?
पेमेंट शीट क्या है? क्या इस रास्ते अगड़ों
के बिगड़े बच्चे लाखों देकर नही आते? ये सीटें किसके लिए
आरक्षित है?’
‘आरक्षण के विरोध को आंदोलन के रूप में क्यों पेष किया जाता है?’
ऐसे ही सवालों से जूझता
लेखक सामाजिक-व्यवस्था पर प्रहार करता है-‘मेरी दृष्टि में आंदोलनरत
डाक्टरों तथा सवर्ण पंचायत द्वारा सरपंच पद के लिए पर्चा दाखिल करने वाली दलित महिला
को नंगी करके गांव में घुमाकर जला देने वाले जातिभिमानी लोगों में कोई अंतर नही है।’ (वही 85)
लेखक ने पिछड़े वर्ग
के संत नामदेव, संत चोखामेला, संत कबीर, गुरू नानक, संत सेनजी, महात्मा ज्योतिबा फुले, पेरियार ई.वी.रामास्वामी, नारायण गुरू, संत रैदास इत्यादि समाज-सुधारकों के संघर्षो
का ब्यौरा दिया हे और इसके बावजूद पिछड़ा वर्ग के अब तक पिछड़ा बना रहेन पर क्षोभ प्रकट
किया है।
अंतिम अध्याय चार ‘पेशे के आधार पर पिछड़ा वर्ग (षूद्र जातियों)
की जातियों की विवेचना प्रस्तुत करते है । मंडल कमीशन की सिफारिषों को ज्यों का त्यों
अंग्रेजी में प्रकाषित भी किया गया है। इसी आधार पर पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों
की आधिकारिक सूची जारी की है।’
अंत में लेखक ने महत्वपूर्ण
समाधान भी प्रस्तुत किए हे जो बेहद महत्वपूर्ण है, जो आज के समय में दलितों एवं पिछड़ा वर्ग के साथ-साथ अन्यों के
लिए बेहद महत्वपूर्ण है। कहा जा सकता हक कि अपने शोध परक दृष्टिकोण एवं सीमित कलेवर
के कारण पुस्तक न केवल पठनीय हे बल्कि जरूरी भी है।
यह उनकी पिछली पुस्तक
‘सफाई कामगार समुदाय’ को सार्थकता व संपूर्णता भी प्रदान करती है।
एक तरह से बौद्धिक रूप् से यह पुस्तक हमें और ज्यादा मांजेगी, हमारी सोच को और परिष्कृत करेगी ऐसी उम्मीद
की जा सकती है।
टेकचंद
म.न.166 गांव नाहरपुर
रोहिणी सेक्टर-7 दिल्ली
110085
सौजन्य से त्रैमासिक पत्रिका 'अपेक्षा' जुलाई दिसम्बर अंक क्रं
36-37
पुस्तक ‘‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’’ के बारे में अन्य जानकारी एवं समीक्षा पढ़ने
के लिए इस किताब के ब्लाग पर लागआन करें।
पिछडे वर्ग के महात्मा ज्योतिराव फुले ने
दलितों को उठाने के लिए किताब लिखी 'गुलामगीरी'
और दलित वर्ग के संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग
को उठाने के लिए किताब लिखी 'आधुनिक भारत में पिछड़ा
वर्ग'
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