Monday, December 31, 2012
Monday, September 10, 2012
पिछड़ा वर्ग: विगत-अगत
पिछड़ा वर्ग: विगत-अगत
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टेकचंद
17 नवंबर 2011 के ‘नव भारत टाइम्स’ के मुखपृष्ठ की खबर- ‘ओ.बी.सी. में 100 नई जातियां।’
18 नवंबर 2011 के ‘जनसत्ता’ के मुखपृष्ठ की खबर- ‘मलाईदार तबके के लिए
आय सीमा दोगुनी करने की सिफारिष।’
3 और 5 दिसंबर के ‘नई दुनिया’ की खबर -‘पिछड़े मुस्लिम वर्ग
को आरक्षण।’
पहली खबर में बीस राज्यों
के उम्मीदावारों को फायदा मिलने की बात की गई है।
दूसरी खबर में ओ.बी.सी. के लिए बनी ‘क्रीमी लेयर’ (मलाईदार तबके) की सीमा दोगुनी कर इसे सालाना
नौ लाख रूपये करने की सिफारिष की है। तीसरी खबर से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ‘मंडल आयोग’ के तहत सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी में अलग से 5-6 प्रतिषत
कोटा तय करने जा रही है।
तीनों खबरों को और
घोषित किया जाने वाले ‘मुहुर्त’ को देखकर लगता है कि केंन्द्र सरकार आगामी
चुनावों को ठीक उसी तरह ‘इन्फ्लूएंस’ करना चाहती है जैसे छठा वेतन आयोग लागू कर
दिया था। बहरहाल! ऐसे में अन्य पिछड़ा वर्ग को जानना बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। मोटे
तौर पर देखे तो आज यह सामाजिक वर्ग से बढ़कर राजनीतिक अवधारणा ज्यादा लगी है। जहां-तहां
राजनीतिक मंचों से उनके हितों की बात की जा रही है, लेकिन उसकी विगत स्थिति,
इतिहास और भविष्य को समझने-समझाने के प्रयास कम ही दिखाई देते है।
छलित व पिछड़े वर्गों
के साथ एक विचित्र सी स्थिति है कि साधन संपन्न होते ही वे भी वेदों, पुराणों की तरफ मुड़ने लगते है। जाति नामक
अवधारणा से सदियों पीड़ित, शोषित, रहने के बावजूद अवसर मिलते ही स्वयं को श्रेष्ठ
ठहराना और अपने नीचे एक आध छोटी जाति टोह लेते है। लोग, व्यक्ति, वर्ग अथवा ज्ञान की तह में जाति के लिए मनुस्मृति, शतपथ बा्रम्हण इत्यादि को आधार बनाते है।
ऐसे में रचनाएं भी आऐंगी तो कुछ ऐसी--
ऑरजिन ऑफ सूद्र ऐ क्रिटिकल
एनालसेज’: रामरतन सूद
‘चमार जाति का गौरवशाली इतिहास’: सत्तनाम सिंह
‘जाट जाति का स्वर्णिम इतिहास’: इत्यादि
डपर्युक्त जातियों
तथा ऐसी ही अन्य जातियों को तथाकथित गौरव ‘स्वर्णिम युग’ का अहसास करवाने के लिए उसी ब्राम्हणवादी
ग्रंथ परंपरा का ‘संदर्भ पुस्तक’ के तौर पर प्रयोग किया जाता है, जिनकी रचना का उद्देष्य ब्राम्हण जाति को
श्रेष्ठ व अन्य के बीच स्वामी सेवक का संबंध विकसित करना था। दूसरी और वैज्ञानिक नृविज्ञान, सामाज विज्ञान, अर्थशास्त्र का उपयोग लगभग नही किया जाता
है।
ऐसे परिदृष्य में एक
महत्वपूर्ण शोध पढ़ने का अवसर मिलता है। ‘आधुनिक भारत में पिछड़ा
वर्ग’ (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं) लेखक और शोधार्थी
‘संजीव खुदषाह’ ने इस पुस्तक में पिछड़ा वर्ग के विगत-अगत
पर गंभीर शोध किया है। उनकी ‘सफाई कामगार समुदाय’ पुस्तक पहले ही चर्चित हो चुकि है। प्रस्तुत-पुस्तक
में पिछड़ा वर्ग की उन वास्तविकताओं को उभारा है, जो स्वयं और अन्यों द्वारा, गढ़े-रचे पूर्वाग्रहों,
मिथकों में दब चुकी थी । कुल जमा 140 पृष्ठों व चार अध्याय में ‘पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, स्थिति एवं वर्गीकरण’ में संजीव पिछड़ा वर्ग की वास्तविकता बयां
करते है-‘‘पिछड़ा वर्ग एक ऐसा
कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है न ही अस्पृष्य या आदिवासी। इसी बीच की स्थिति के कारण
न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका न ही निम्नतम होने का फायदा।’’ (पृष्ठ 14) सदैव सवर्ण-अवर्ण के बीच झूलते
पिछड़ा वर्ग में संजीव चेतना की कमी मानते हैं । और चेतना आती है वैज्ञानिक सोच से।
पिछड़ा वर्ग आज तक धार्मिक ग्रंथों में अपनी जड़े सींचने का प्रयास करता रहा है। जहां
अमुक देवता के अमुक-अमुक अंग से फलां-फलां जाति के मनुष्य की उत्पत्ति के मिथक पर आज
भी पुरोहित वर्ग जान देता है। धार्मिक ग्रंथों की मानव उत्पत्ति संबंधी एक-एक मान्यता
का संजीव तार्किक विष्लेषण करते है और पाते है कि स्वयं हिंदू धर्म-ग्रंथ मानव उत्पत्ति
को ऐकर एकमत नही है।
मनव उत्पत्ति की वैज्ञानिक
खोजों में संजीव पांच सौ (500) करोड़ वर्ष पूर्व के अजीव काल अठारह करोड़ वर्ष पूर्व
के जुरेसिककाल, नवपाषाण, धातुकाल के आकड़ों का खाका प्रसतुतकर मनुष्य
की उत्पत्ति और विकास को समझाते है। पिछड़ा वर्ग की सामाजिक स्थिति को परिभाषित करते
हुए संजीव लिखते है कि -‘‘हिंदू धर्म में से
यदि ब्राम्हण क्षत्रिय एवं वैष्य को निकाल दे तो शेष वर्ग ‘षूद्र’ को हम पिछड़ा वर्ग कह सकते है, इसमें अतिषूद्र शामिल नही है। पिछड़ा वर्ग वर्षो से तिरस्कृत
होता आया बल्कि यों कहें कि हाषिए पर रहा तो ज्यादा बेहतर होगा जिसे सवर्ण न हो पाने
का क्षोभ है तो अस्पृष्य न होने का गुमान भी। वर्षो से हिंदू सभ्यता एवं संस्कृति को
संजोए यह वर्ग आज भी अपने हस्ताक्षर को बेताब है। यदि हम पिछड़ा वर्ग को रेखांकित करें
तो पाएंगे कि वर्ण-व्यवस्था का एक वर्ण शूद्र,
जिनमें कुछ नई एवं उच्च समझी जाने वाली जातियां भी शामिल है जो सवर्ण होने का दावा
करती है, किंतु सवर्ण इन्हे
अपने में शामिल करने को तैयार नहीं है।’’ (वही 22)
यह ‘अस्पृश्य न होने का गुमान’ ‘सवर्ण होने का दावा’ महत्वपूर्ण है। क्योकि इन्ही कारणों से पिछड़ा
वर्ग की मानसिकता मध्यवर्ग जैसी हो चली है। उपर वाले इन्हे नीचे धकेलेंगंे और नीचे
ये जाना नही चाहते। इसी संदर्भ में 28 नवंबर 2011 को दलित नेता उदितराज के नेतृत्व
में हुई रैली के पर्चे को देखना जरूरी है। वे लिखते है कि -‘‘मंडल कमीषन की लड़ाई मूलतः दलितों ने ही लड़ी
थी और जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री वी.पी.सिंह ने इसे लागू करने की घोषणा की तब जाकर
कुछ पिछड़े वर्ग के लोग समर्थन में आए।’’
ठसी तरह की घटनाएं
सन् 2004 में उस समय हुई जब मेडिकल में ओ.बी.सी. को लागू किया गया और उसका देशव्यापी
विरोध किया गया। विरोध दलितों आदिवासियों को झेलना पड़ा था, क्योकि ओ.बी.सी. वर्ग तो तब भी- इसी टू बी
और नॉट बी. की उहापोह भरी स्थिति में था। उनको लग रहा था कि आरक्षण की आरक्षण की मांग
करने से वो शूद्रों अस्पृष्यों में गिने जाने लगेगें। इसका कारण समझ में आता है जब
संजीव ओ.बी.सी. जातियों का वर्गीकरण करते है। वे इन्हे खेत कार्य, पषुपालन, कपड़े का काम, वत्रन, लोहा,
धातु, तिलहन का काम, मछली पकड़ने तथा इस्कार जैसे लगभग 10-11 वर्गों
में मानते है। दूसरी ओर चमार, सफाई कामगार, वैष्य, नाई, धोबी, मल्लाह, वेद्य इत्यादि को ‘अनुत्पादक’ किंतु सृजनात्मक माना है। सृजन आधुनिक युग
में उत्पादन ही है।
ध्यान देने वाली बात
यह है कि ये सब जातियां पिछड़ी तो है किंतु साफ-सफाई खाल-मांस इत्यादि का काम करने वाली
अनुसूचित जातियों के मुकाबले कुछ ‘उन्नत’ है। ऐसे में इन्हे स्वयं को ‘उच्च’
साबित करने के लिए अच्छा-खासा आधार मिल जाता है। उपर से सवर्णो के लिए वे थोड़े
कम अस्पृष्य है। उनके काम धंधे भी ऐसे है जो सवर्णो के सीधे ‘टच’
में है। जैसे माली (सैनी) के फूल-फसल से,
अहीर यादव के डंगरों से कुम्हार के बर्तन से , लोहार के औजार से , सुनार के गहने से, नाई के हाथ से केवट की नाव से, बढ़ई के काम से सवर्ण को उतनी घृणा नही होती
जितनी मेहत्तर के मैला ढोने से, चमार द्वारा मृत पशुओं
को उठाने, खाल खीचने से होती
है। संभवतः वे सवर्णो (उपर के तीनों वर्ण) के सीधे संपर्क में भी उतने नही रहते जितने
ओ. बी.सी. वर्ग की जातियां । इसी कारण ओ.बी.सी.जातियों ने ब्राम्हणवादी कर्मकांड पूजा-पाठ
रह-सहन और सबसे ज्यादा हिंन्दू धार्मिक ग्रंथों की संस्कृति को लगभग ओढ़ लिया। वे उसमें
धंस गए। उसी शतुर्मुर्ग की तरह, जो खतरा होने पर मुंडी
तो रेत में छिपा लेता है लेकिन पूरा शरीर षिकारी को सौंप देता है। क्या आज पिछड़े वर्ग
ने अपनी ताकत, राजनीति और अस्तित्व
को दलितों से अलगाकर सवर्ण षिकारियों को नहीं सौंप-सा दिया है? संजीव तफसील से ओ.बी.सी. वर्ग द्वारा, पूजे जा रहे धार्मिक ग्रंथों के संदर्भो से
ही बताते है कि -‘‘क्षत्रिय पिता व ब्राम्हण
माता से सूत, शूद्र पिता व ब्राम्हण
माता से चांडाल उत्पन्न होता है।’’ इन सभी स्मृति एवं
पुराणों के आधार पर कोई भी पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति अपने उपर गर्व नही कर सकता। यदि वे
इन धर्म-ग्रंथों को मान्यता देते है, तो उन्हे यह भी मानना
होगा कि वे किसी न किसी की अवैध संतान की संतति
है। इसी तरह ‘जाति एवं गोत्र विवाद
तथा हिन्दूकरण’ नामक अध्याय में वे
उन जातियों की वास्तविकता बताते है, जो सवर्ण होनक का दावा
करती है किन्तु हिंदु धर्म ग्रंथ उनके प्रति कटुता से भरे पड़े है। कायस्थ, मराठा, भूमिहार, सूद आदि ऐसी विवादास्पद
जातियां है। इसी अध्याय में गोत्रों, देवों व जातियों के
हिन्दूकरण को शोधपरक ढंग से समझाया गया है।
लेखक लिखता है कि
-‘‘ये पिछड़े वर्ग की जातियां जिन धर्म ग्रंथों
पर अकाट्य श्रद्धा रखती है, जिनकी दिन रात स्तुति
करती है, वे इन्हे इन्ही सवर्णो
(ब्राम्हण, क्षत्रिय, वेष्य) की नाजायज संतान ठहराते है। आज हिंदू
धर्म के बड़े पोषक के रूप् में पिछड़ा वर्ग शामिल है, जिनमें हजारों-हजार जातियां है। वे सभी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार
शूद्र में आति है।’’ (वही 43)
हम देख सकते हे कि
किस प्रकार आरक्षण के लिए तो पिछड़ा वर्ग आवाज उठाता है किंतु अनुसूचित जाति व जनजाति
के प्रति उनमें न सहानुभूति है, न सहयोग की भावना।
मंडल कमीषन हो या एससी/एसटी का विवाद सवर्णो व प्रतिक्रियावादियों का कोपभाजन
50/57 को बनना पड़ा था। यही कारण है कि पिछड़ा वर्ग आचार-विचार, संस्कार-संस्कृति कर्मकांड से पूरा सवर्ण
हिंन्दूवादी बना रहेगा। साधन-संपन्न होते ही वह स्वयं को सवर्ण हिंन्दू
मानने-मनवाले के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देता है। लेखक ऐतिहासिक तथ्य देते हुए
मराठा षिवाजी द्वारा 6 जून 1674 को वंषावली, जाति सुधारने
व्रातय स्तोम उपनयन तथा राज्यभिषेक का उदाहरण देता हैः ‘यदि मान भी ले कि वंषावली सच्ची थी फिर
भी षिवाजी को उंची जाति में प्रवेष करने के लिए (सामाजिक स्वीकृति) एड़ी-चोटी एक
करनी पड़ी। साथ ही अपने राज्याभिषंेक के समय रूपये पानी की तरह बहाने पड़े जिसमें
गागाभाट को 7000 हण दिए गए तथा षिवाजी को चांदी,तांबा,लोहा आदि से और
कपूर, नमक, शक्कर, मक्खन, विभिन्न फलों, सुपारी आदि से भी तौला गया, जिसके मूल्य को ब्राम्हण में वितरित कर
दिया गया। कुल खर्चा 1,50,000 हण था।’(वही 48) अब यदि उस
वक्त के हिसाब से लगाएं तो एक हण तीन रूपये मूल्य का था। अर्थात आज के हिसाब से करोड़ों
रूपये। इस प्रकार जब शासकों की यह हालत थी तो आम जनता की मानसिक स्थिति समझी जा सकती
है।
जाति के हिन्दूकरण
के साथ-साथ संजीव ‘रक्त सम्मिश्रण’ तथा गोत्रों के बदलाव, ग्रहण, त्याग व हिंदूकरण पर भी तथ्यात्मक जानकारी देते है। इनमें महत्वपूर्ण
है-स्थानीय देवी-देवताओं का हिन्दूकरण। वे तफसील से समझाते हे कि किस प्रकार ब्राम्हणों
ने अनार्य देव षिव शक्ति गणपति आदि का हिन्दूकरण कर दिया। यहां तक कि बुध्द को भी विष्णु
का दसवां अवतार घोषित कर दिया। उड़ीसा, पुरी जगन्नाथ का उदाहरण
बेहद दिलचस्प है कि आदिवासियों के आराध्यदेव जगन्नाथ को इस प्रकार वैदिकों के बंधन
में जकड़ा गया कि-‘‘राजाओं के प्रषासनिक
हितों की रक्षा करने वाले वैदिकों ने आसानी से जगन्नाथ पर धार्मिक कब्जा कर लिया और
दलितों को मंदिर से बाहर कर दिया। जगन्नाथ के दर्षन आम जनता के लिए दुलर्भ हो गए।’’(वही 70) इसी संदर्भ में हम साई बाबा (शिरडी)
वैष्णों देवी, केदारनाथ, कैलाष इत्यादि व गुड़गांव, बेरी जैसे स्थानीय देव-देवियों के हिन्दूकरण
और ब्राम्हणीकरण को भी देख सकते है।
तीसरे अध्याय ‘विकास यात्रा के विभिन्न सोपान’ में कई महत्वपूर्ण बिंदुओं का विष्लेषण किया
गया है। जिससे लेखक की गहन शोध दृष्टि का पता चलता है। जैसे- जाति आधारित आरक्षण आदिकाल
से ही शुरू हो जाता है। ‘‘साईमन कमीशन दलित वर्णो
के लिए भी संवैधानिक संरक्षणों की सिफारिश करने वाला था, किंतु कांग्रेस तथा हिंदू महासभा ने इसका
विरोध किया।’’(वही 77)
काका कालेलकर आयोग
की रिपोर्ट में कहा गया कि ‘पिछड़ेपन का दोष इन्ही
जातियों का है,’ ‘सरकारी नौकरियों में
आरक्षण गलत है,’ ‘पिछड़ेपन की शिनाख्त
से जाति-व्यवस्था स्थायी तौर पर हावी रहेगी’(वही 80)। इनके अतिरिक्त
मंडल आयोग की सिफारिषों पर विस्तार से बात की गई है। आरक्षण विरोधी बुद्धिजीवियों पर
तीखे प्रष्न दागे गए है, जैसे-‘मैला साफ करने की नौकरी में आरक्षण पर दलितों
का विरोध क्यो नही करते ?’
‘दलित एवं पिछड़ा वर्ग के बुद्धिजिवी को पंडित का दर्जा क्यों
नही देते?’
‘मैनेजमेंट शीट क्या है?
पेमेंट शीट क्या है? क्या इस रास्ते अगड़ों
के बिगड़े बच्चे लाखों देकर नही आते? ये सीटें किसके लिए
आरक्षित है?’
‘आरक्षण के विरोध को आंदोलन के रूप में क्यों पेष किया जाता है?’
ऐसे ही सवालों से जूझता
लेखक सामाजिक-व्यवस्था पर प्रहार करता है-‘मेरी दृष्टि में आंदोलनरत
डाक्टरों तथा सवर्ण पंचायत द्वारा सरपंच पद के लिए पर्चा दाखिल करने वाली दलित महिला
को नंगी करके गांव में घुमाकर जला देने वाले जातिभिमानी लोगों में कोई अंतर नही है।’ (वही 85)
लेखक ने पिछड़े वर्ग
के संत नामदेव, संत चोखामेला, संत कबीर, गुरू नानक, संत सेनजी, महात्मा ज्योतिबा फुले, पेरियार ई.वी.रामास्वामी, नारायण गुरू, संत रैदास इत्यादि समाज-सुधारकों के संघर्षो
का ब्यौरा दिया हे और इसके बावजूद पिछड़ा वर्ग के अब तक पिछड़ा बना रहेन पर क्षोभ प्रकट
किया है।
अंतिम अध्याय चार ‘पेशे के आधार पर पिछड़ा वर्ग (षूद्र जातियों)
की जातियों की विवेचना प्रस्तुत करते है । मंडल कमीशन की सिफारिषों को ज्यों का त्यों
अंग्रेजी में प्रकाषित भी किया गया है। इसी आधार पर पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों
की आधिकारिक सूची जारी की है।’
अंत में लेखक ने महत्वपूर्ण
समाधान भी प्रस्तुत किए हे जो बेहद महत्वपूर्ण है, जो आज के समय में दलितों एवं पिछड़ा वर्ग के साथ-साथ अन्यों के
लिए बेहद महत्वपूर्ण है। कहा जा सकता हक कि अपने शोध परक दृष्टिकोण एवं सीमित कलेवर
के कारण पुस्तक न केवल पठनीय हे बल्कि जरूरी भी है।
यह उनकी पिछली पुस्तक
‘सफाई कामगार समुदाय’ को सार्थकता व संपूर्णता भी प्रदान करती है।
एक तरह से बौद्धिक रूप् से यह पुस्तक हमें और ज्यादा मांजेगी, हमारी सोच को और परिष्कृत करेगी ऐसी उम्मीद
की जा सकती है।
टेकचंद
म.न.166 गांव नाहरपुर
रोहिणी सेक्टर-7 दिल्ली
110085
सौजन्य से त्रैमासिक पत्रिका 'अपेक्षा' जुलाई दिसम्बर अंक क्रं
36-37
पुस्तक ‘‘आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग’’ के बारे में अन्य जानकारी एवं समीक्षा पढ़ने
के लिए इस किताब के ब्लाग पर लागआन करें।
पिछडे वर्ग के महात्मा ज्योतिराव फुले ने
दलितों को उठाने के लिए किताब लिखी 'गुलामगीरी'
और दलित वर्ग के संजीव खुदशाह ने पिछड़े वर्ग
को उठाने के लिए किताब लिखी 'आधुनिक भारत में पिछड़ा
वर्ग'
Friday, August 24, 2012
पिछड़ा वर्ग की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण
राष्ट्रीय प्रत्रिका 'हंस` जुलाइ २०१० अंक पृष्ठ-८६
पुस्तक समीक्षा
रमेश प्रजापति
समाजशास्त्र की ज्यादातर पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती थी, परन्तु पिछले कुछ वर्षो से हिन्दी में समाजशास्त्र की पुस्तकों के आने से सामाजिक विज्ञान के छात्रों के लिए संभावनाओं का एक नया दरवाजा खुला है। साथ ही हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों को भारत की सामाजिक परम्परा से जुड़ने का अवसर भी प्राप्त हुआ है। आज इस श्रृंखला में एक कड़ी युवा समाजशास्त्री संजीव खुदशाह की पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` भी जुड़ गई है। यह पुस्तक लेखक का एक शोधात्मक ग्रंथ है। पुस्तक के अंतर्गत लेखक ने उत्तर वैदिक काल से चली आ रही जाति प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था को आधार बनाकर पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास-प्रक्रिया और उसकी वर्तमान दशा-दिशा का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया है।
आदि काल से भारत के सामाजिक परिपे्रक्ष्य को देखे तो भारतीय समाज जाति एवं वर्ण व्यवस्था के व्दंद से आज तक जूझ रहा है। समाज के चौथे वर्ण की स्थिति में अभी तक कोई मूलभूत अंतर नही हो पाया है। आर्थिक कारणों के साथ-साथ इसके पीछे एक कारण सवर्णो की दोहरी मानसिकता भी कही जा सकती है। पिछड़ा वर्ग जोकि चौथे वर्ण का ही एक बहुत बड़ा हिस्सा है। इस वर्ग की सामाजिक स्थिति के संबंध में लेखक कहता है-''पिछड़ा वग्र एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है और न ही अस्पृश्य या आदीवासी इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका है और न ही निम्न होने का फायदा मिला।`` पृ.१४ यह बात सत्य दिखाई देती है कि पिछड़ा वर्ग आज तक समाज में अपना सही मुकाम हासिल नही कर पाया है। उसकी स्थिति ठीक प्रकार से स्पष्ट नही हो पा रही है इसीलिए इस वर्ग की जातियॉं अपने अस्तित्व के बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है।
विवेच्य पुस्तक में अभी तक की समस्त भ्रांतियों, मिथकों और पूर्वधारणाओं को तोड़ते हुए धर्म-ग्रंथों से लेकर वैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर पिछड़े वर्ग की निर्माण प्रक्रिया को विश्लेषित किया गया है। लेखक ने आवश्यकता पड़ने पर उदाहरणों के माध्यम से अपने निष्कर्षो को मजबूत किया है। भारत की जनसंख्या का यह सबसे बड़ा वर्ग है जो वर्तमान स्थितियों -परिस्थितियों के प्रति जागरूक न होने के कारण राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका नही निभा पा रहा है। इस वर्ग की यथार्थ स्थिति के बारे में लेखक का मत है-''व्दितीय राष्टीय पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट तथा रामजी महाजन की रिपोर्ट कहती है कि भारत वर्ष में इसकी जनसंख्या ५२ प्रतिशत है, किन्तु विभिन्न संस्थाओं , प्रशासन एवं राजनीति में इनकी भागीदारी नगण्य है। चेतना की कमी के करण यह समाज आज भी कालिदास बना बैठा है।`` पृ. १४ गौरतलब है कि प्राचीन काल से ही इस वर्ग की जातियॉं अपनी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के कारण सदैव दोहन-शोषण का शिकार रही है। भूमंडलीकरण के आधुनिक समाज में इस वर्ग की स्थिति ज्यो-कि-त्यों बनी हुई है। हम वैज्ञानिक युग में जी रहे है परन्तु आज भी अंध विश्वास के कारण कुछ पिछड़ी जातियों का मुंह देखना अशुभ माना जाता है। जिसकी पुष्टि लेखक के अपने इस वक्तव्य से की है-''आज भी सुबह-सुबह एक तेली का मॅुह देखना अशुभ माना जाता है। वेदों-पुराणों में पिछड़ा वर्ग को व्दिज होने का अधिकार नही है, हालाकि कई जातियॉं अब खुद ही जनेउ पहनने लगी । धर्म-ग्रंथो ने इन शुद्रों को (आज यही शुद्र पिछड़ा वर्ग में आते है) वेद मंत्रों को सुनने पर कानों में गर्म तेल डालने का आदेश दिया है। पूरी हिन्दू सभ्यता में विभिन्न कर्मो के आधार पर इन्ही नामों से पुकारे जाने वाली जाति जिन्हे हम शुद्र कहते है। ये ही पिछड़ा वर्ग कहलाती है।`` पृ. २३ इसी पिछड़ा वर्ग के उत्थान और सम्मान के उद्देश्य से समय-समय पर महात्मा ज्योतिबा फूले, डा. अम्बेडकर, लोहिया, पेरियार, चौ.चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि पिछड़े वर्ग के समाज सुधारकों और राजनेताओं ने जीवनपर्यंत सतत् संघर्ष किए है। बावजूद इसके पिछड़ा वर्ग आज तक इन समाज सुधारकों को उतना सम्मान नही दे पाया जितना कि उन्हे मिलना चाहिए था।
पिछड़ी जातियों की जॉंच-पड़ताल करते हुए उन्हे कार्यो के आधार पर वर्गीकृत करके इस वर्ग के अंदर आने वाली जातियों का भी लेखक ने गहनता से अध्ययन किया है। लेखक ने इन्हे समाज की मुख्यधारा से बाहर देखते हुए शूद्र को ही पिछड़ा वर्ग कहा है, जिसमें अतिशूद्र शामिल नही है। इस कार्य हेतु लेखक ने पिछड़ा वर्ग की वेबसाईट का सहारा लिया है, जिससे वह अपने तर्क को अधिक मजबूती से सामने रखने में सफल हुआ है। पूर्व वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई अस्तित्व नही था वह उत्तर वैदिक काल में सामने आई और इसी काल में विकसित भी हुई। आर्यो के पहले ब्राम्हण ग्रथों में तीन ही वर्ण थे जबकि चौथे वर्ण शुद्र की पुष्टि स्मृतिकाल में आकर हुर्ह है। शुद्र शब्द को लेखक ने कुछ इस तरह परिभाषित किया है- ''शुद्र शब्द सुक धातु से बना है अत: सुक(दु:ख) द्रा (झपटना यानि घिरा होना) यानि जो दुखों से घिरा हुआ है या तृषित है। तैत्तिरीय ब्राम्हण के अनुसार शूद्र जाति असुरों से उत्पन्न हुई है। (देव्यों वै वर्णो ब्राम्हण:। असुर्य शुद्र:।) यजुर्वेद। ३०-५ के अनुसार (तपसे शुद्रम) कठोर कर्म व्दारा जीविका चलाने वाला शूद्र है। यही गौतम धर्म सुत्र (१०-६,९) के अनुसार अनार्य शुद्र है।`` पृ.-३७ मनुस्मृति के आधार पर अनुलोम एवं प्रतिलोम सूची के अनुसार पिछड़ी जातियों की उत्पत्ति के संबंध में लेखक इस निष्कर्ष पर पहुंचा है- ''अभी तक हम यह मान रहे थे कि समस्त पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ग से आती है, किन्तु यह सूची एक नही दिशा दिखलाती है, क्योकि ऐसा न होता तो वैश्य पुरूष से शुद्र स्त्री के संयोग से दर्जी का जन्म क्यों होता, जबकि हम दर्जी को भी शुद्र मान रहे है। इस प्रकार शुद्र पुरूष या स्त्री से अन्य जाति के पुरूष-स्त्री के संभोग से निषाद, उग्र, कर्ण, चांडाल, क्षतर, अयोगव आदि जाति की संतान पैदा होती है। अत: इस बात की पूरी संभावना है कि अन्य कामगार जातियों का अस्तित्व निश्चित रूप से अलग रहा है।`` पृ.-३० लेखक व्दारा दी गई पिछड़ी जातियों की निर्माण प्रक्रिया हमारी पूर्व धारणाओं को तोड़कर आगे बढ़ती है। यदि शुद्रों का विभाजन किया जाए तो हम देखते है कि पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ण के अंतर्गत ही आती है। शुद्र के विभाजन के संदर्भ में पेरियार ललई सिंह यादव का यह कथन देखा जा सकता है-''समाज के तथाकथित ठेकेदारों व्दारा जान-बूझकर एक सोची-समझी साजिश के तहत शुद्रों के दो वर्ग बना रखे है, एक सछूत शुद्र (पिछड़ा वर्ग) दूसरा अछूत शूद्र (अनुसूचित जाति वर्ग)।``
आर्यो की वर्ण -व्यवस्था से बाहर, इन कामगार जातियों के संबंध में लेखक 'सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियों को अनार्य` मानते है। समय-समय पर भारत के विभिन्न हिस्सों में जाति व्यवस्था के अंतर्गत परिवर्तन हुए जिनसे पिछड़ा वर्ग का तेजी से विस्तार हुआ। अपने काम-धंधों पर आश्रित ये जातियॉं अपनी आर्थिक स्थिति के कारण देश के अति पिछड़े भू-भागों में निम्नतर जीवन जीने को विवश है। लेखक ने सामाजिक समानता से दूर उनके इस पिछड़ेपन के कारणों की भी तलाश की है। पुस्तक में पिछड़ा वर्ग को कार्य के आधार पर उत्पादक और गैर उत्पादक जातियों में बांटा गया है।
यदि जातियों के इतिहास में जाए तो हम देखते है कि भारत में वर्ण-व्यवस्था का आधार कार्य और पेशा रहा, परन्तु कालान्तर में इसे जन्म पर आधारित मान लिया गया है। दरअसल भारत की जातीय संरचना से कोई भी जाति पूर्ण रूप से संतुष्ट दिखाई नही देती और उनमें भी खासकर पिछड़ी जातियॉं। जाति व्यवस्था को लेकर १९११ की जनगणना में यह असंतोष की भावना मुख्यत: उभर कर सामने आई थी। उस समय अनेक जातियों की याचिकाऍं जनगणना अयोग की मिली, जिसमें यह कहा गया था कि हमें सवर्णों की श्रेणी में रखा जाए। परिणामस्वरूप जनगणना के आंकड़ो में ढेरों विसंगतियॉं और अन्तर्जातीय प्रतिव्दन्व्दिता उत्पन्न हो गई थी। आज भी कायस्थ, मराठा भूमिहार और सूद सवर्ण जाति में आने के लिए संघर्षरत है। ये जातियॉं अपने आप को सवर्ण मानती है परन्तु सवर्ण जातियॉं इन्हे अपने में शामिल करने के बजाए इनसे किनारा किए हुए है। लेखक ने अपने अध्ययन में तथ्यों और तर्को के आधार पर इन जातियों की वास्तविक सामाजिक स्थिति को चित्रित करने का प्रयास किया है। यदि गौर से देखे तो आज भी पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति अपनी स्थिति को लेकर हीन भावना से ग्रस्त है। जबकि भारत के विभिन्न राज्यों की अन्य जातियॉं आरक्षण लाभ उठाने की खातिर पिछड़े वर्ग में सम्मिलित होने के लिए संघर्ष कर रही है। आधुनिक भारत में समय-समय पर जातियों के परिवर्तन करने से बहुत बड़े स्तर पर सामाजिक विसंगतियॉं उत्पन्न होती रही है। पिछड़ा वर्ग को अपनी समाजिक और आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए विचारों में बदलाव लाना अति आवश्यक है। जॉन मिल कहते है,''विचार मूलभूत सत्य है। लोगो की सोच में मूलभूत परिवर्तन होगा, तभी समाज में परिवर्तन होगा।`` यदि यह वर्ग जॉन मिल के इन शब्दों पर सदैव ध्यान देगा तो वह अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति स्थिति को उचित दिशा देकर अवश्य आगे बढ़ सकेगा।
आज भी सवर्णो में गोत्र प्रणाली विशिष्ट स्थान रखती है। प्राचीन काल से लेकर इस उत्तर आधुनिक समय में भी सगोत्र विवाह का सदैव विरोध होता रहा है। इनको देखते हुए कुछ पिछड़ी जातियॉं भी ऐसे विवाह संबंधो का विरोध करन लगी है। ताज़ा उदाहरण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग की जाट जाति को लिया जा सकता है। जिसने हाल ही में समस्त कानून व्यवस्थाओं को ठेंगा दिखाकर सगोत्र और प्रेम-विवाह का कड़ा विरोध किया है। जाट महासभा ने ऐसे विवाह के विरोध में अपना फासीवादी कानून भी बना लिया है।
पिछड़े वर्ग में व्याप्त देवी-देवताओं से संबंधित अनेक परम्परागत मान्यताओं और धारणाओं का भी लेखक द्वारा गंभीरता से अध्ययन किया गया है। गौतम बुध्द की जातिगत भ्रातियों को लेखक ने सटीक तथ्यों के माध्यम से तोड़कर उन्हे अनार्य घोषित किया है। बुध्द और नाग जातियों के पारस्परिक संबंध को बताते हुए डॉ. नवल वियोगी के कथन से अपने तर्क की पुष्टि इस संदर्भ में की है कि महात्मा बुध्द अनार्य अर्थात शुद्र थे, जिन्हे बाद में क्षत्रिय माना गया-''बौध्द शासकों के पतन के बाद स्मृति काल में ही बुध्द की जाति बदल कर क्षत्रिय की गई तथा उन्हे विष्णु का दशवॉं अवतार भी इसी काल में बनाया गया।`` पृ.-७४
धार्मिक पाखंडो से मुक्ति दिलाने और पिछड़ों के अंदर चेतना का संचार करके उनके उत्थान के लिए देश भर के बहुत से समाज सुधारक साहित्यकारों व्दारा समय-समय पर सुधारवादी आंदोलन चलाए गए है। इन साहित्यकारों के व्यक्तित्व और उनके सामाजिक कार्यो का लेखक ने बड़ी ही शालीनता से अपनी इस पुस्तक में परिचय दिया है। इन संतों में प्रमुख है-संत नामदेव, सावता माली, संत चोखामेला, गोरा कुम्हार, संत गाडगे बाबा, कबीर, नानक, नानक, पेरियार, रैदास आदि। मंडल आयोग की सिफारिशों और आरक्षण की व्यवस्था के विवादों की लेखक ने इस पुस्तक में अच्छी चर्चा की है।
प्राचीन भारत की सामाजिक व्यवस्था को लेकर आधुनिक भारतीय समाज में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास के साथ-साथ उनकी समस्याओं और उनके आंदोलनों का अध्ययन संजीव खुदशाह ने बड़ी सतर्कता के साथ किया है। लेखक ने पिछड़ा वर्ग के इतिहास के कुछ अनछुए प्रसंगों पर भी प्रकाश डाला है। संजीव खुदशाह ने धार्मिक ग्रंथो, सामाजिक संदर्भो और राजनीतिक सूचनाओं का गहनता से अध्ययन करके आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग की वास्तविक सामाजिक स्थिति को सहज-सरल भाषा में सामने रखने की कोशिश की है। कोशिश मै इस कारण से कह रहा हूं कि लेखक ने इतने बड़े वर्ग के संघर्षो और संत्रासों को बहुत ही छोटे फलक पर देखा है। लेखक का पूरा ध्यान इस वर्ग-विशेष के सामाजिक विश्लेषण पर तो रहा परन्तु उनके शैक्षिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विश्लेषण पर नही के बराबर रहा है। आधुनिक भारत में जिस पूंजीवाद ने समाज के इस वर्ग को अधिक प्रभावित किया है उससे टकराए बिना लेखक बचकर निकल गया, यह इस पुस्तक का कमजोर पक्ष कहा जा सकता है। फिर भी मै इस युवा समाजशास्त्री को बधाई जरूर दूंगा जिन्होने बड़ी मेहनत और लगन से भारत के इतने बड़े वर्ग की स्थिति पर अपनी लेखनी चलाई है।
रमेश प्रजापति
डी-८, डी.डी.ए. कालोनी
न्यू जाफराबाद, शाहदरा,
दिल्ली-११००३२
मोबाईल-०९८९१५९२६२५
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