Saturday, October 30, 2010

जातियों का इतिहास और वर्तमान _--_ Samayant...


जातियों का इतिहास और वर्तमान

 
October 25th, 2010

आलोचना

जयप्रकाश वाल्मीकि

आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग : पूर्वाग्रह मिथक एवं वास्तविकताएं : संजीव खुदशाह; मूल्य: 200 रु, शिल्पायन

संजीव खुदशाह दलित रचनाकार साथ ही एक शोधकर्ता रचनाकार के रूप में पहचाने जाते हैं। उनकी यह पहचान उनकी पुस्तक सफाई कामगार समुदाय के कारण बनी और अब ज्यादा पुष्ट हो गई है। उनकी यह पुस्तक एक शोधपूर्ण आलेख है। पिछड़े वर्ग को लेकर समाज में जो मिथक गढ़े हुए थे लेखक ने उससे अलग हटकर वास्तविकताओं को प्रस्तुत किया है।

शुरुआत मानव उत्पत्ति पर विचार करते हुए की गई है। खुदशाह ने इस हेतु धर्मशास्त्रों में मानव उत्पत्ति को लेकर व्याख्यायित मान्यताओं को सम्मिलित किया है। हिंदू, ईसाई (सृष्टि का वर्णन)और इस्लाम (सुरतुल बकरति, आयत् सं. 30 से 37) को भी उद्धृत कर अंत में वैज्ञानिक मान्यताओं के अंतर्गत स्पष्ट किया है कि मानव उत्पत्ति करोड़ों वर्ष के सतत् विकास का परिणाम है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को जिस तार्किक और तथ्यपूर्ण ढंग से लेखक ने पाठकों के समक्ष रखा है, वह एक नई दृष्टि देता है। फिर भी आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग। पुस्तक की शुरुआत अगर मानव उत्पत्ति के प्रश्नों को सुलझाते हुए नहीं भी की जाती तो भी पुस्तक का मूल उद्देश्य प्रभावित नहीं होता।

चूंकि भारत में जातीय प्रथा होने के कारण मानव का शोषक या शोषित होना या शासक या शासित होना धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण है, इसलिए लेखक श्री संजीव ने पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए हिंदूधर्म शास्त्रों, स्मृतियों सहित कई विद्वानों के मतों को खंगाला और उद्धृत किया है।
चार अध्यायों में समाहित यह पुस्तक पिछड़े वर्ग से संबंधित अब तक बनी हुई अवधारणाओं, मिथक तथा पूर्वाग्रह जो बने हुए हैं उनकी पहचान कर पाठकों के सामने तर्क संगत ढंग से मय तथ्यों के वास्तविकताएं रखती है। जैसे आज का पिछड़ा वर्ग हिंदूधर्म के चौथे वर्ण 'शूद्र' से संबंधित माना जाता है। किंतु खुदशाह के इस शोध प्रबंध से स्पष्ट होता है कि आधुनिक भारत का पिछड़ा वर्ग मूलरूप से आर्य व्यवस्था से बाहर के लोग हैं। शूद्र वर्ण के नहीं। यह अलग बात है कि बाद में इनका शूद्रों में समावेश कर लिया गया। लेखक ने इसे स्पष्ट करने से पूर्व शूद्र वर्ण की उत्पत्ति और उसके विकास को रेखांकित किया है। उनके अनुसार आर्यों में पहले तीन ही वर्ण थे। लेखक ने ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और तैत्तरीय ब्राह्मण सहित डॉ. अम्बेडकर के हवाले से कहा है कि यहे तीनों ग्रंथ आर्यों के पहले ग्रंथ हैं और केवल तीन वर्णों की ही पुष्टि करते हैं। (पृष्ठ-26) वैसे ऋग्वेद के अंतिम दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में चार वर्णों का वर्णन है किंतु उक्त दसवें मंडल को बाद में जोड़ा हुआ माना गया है।

शूद्रों के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए खुदशाह ने दोहराया है कि सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियां अनार्य थीं, जो आज हिंदूधर्म की संस्कृति को संजोए हुए हैं। क्योंकि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन सूचियों में अवैध संतान घोषित नहीं किए गए हैं (पृष्ठ-30) वह लिखते हैं—"यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि मनु ने शूद्र को उच्च वर्णों की सेवा करने का आदेश दिया है, किंतु इन सेवाओं में ये पिछड़े वर्ग के कामगार नहीं आते। यानि पिछड़े वर्ग के कामगारों के कार्य उच्च वर्ग की प्रत्यक्ष कोई सेवा नहीं करते। जैसा कि मनु ने कहा है—शूद्र उच्च वर्ग के दास होंगे। यहां दास से संबंध उच्च वर्णों की प्रत्यक्ष सेवा से है। वह आगे लिखते हैं—उक्त आधारों पर कहा जा सकता है कि 1. शूद्र कौन और कैसे में दी गई व्याख्या के अनुसार क्षत्रियों की दो शाखा सूर्यवंशी तथा चंद्रवंशी में से सूर्यवंशी अनार्य थे, जिन्हें आर्यों द्वारा धार्मिक, राजनीतिक समझौते द्वारा क्षत्रिय वर्ण में शामिल कर लिया गया।
2. बाद में इन्हीं सूर्यवंशीय क्षत्रियों का ब्राह्मणों से संघर्ष हुआ जिसने इन्हें उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया। इसी संघर्ष के परिणाम से नए वर्ग की उत्पत्ति हुई, जिसे शूद्र कहा गया। ये ब्राह्मण वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत आते थे। यहीं से चातुर्वर्ण परंपरा की शुरुआत हुई। शूद्रों में वे लोग भी सम्मिलित थे जो युद्ध में पराजित होकर दास बने फिर वे चाहे आर्य ही क्यों न हों। अत: शूद्र वर्ण आर्य-अनार्य जातियों का जमावड़ा बन गया।
शेष कामगार (पिछड़ा वर्ग) जातियां कहां से आईं। यह निम्न बिंदुओं के तहत दिया गया है।
1. यह जातियां आर्यों के हमले से पूर्व से भारत में विद्यमान थीं, सिंधु घाटी सभ्यता के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि उस समय लोहार, सोनार, कुम्हार जैसी कई कारीगर जातियां विद्यमान थीं।
2. आर्य हमले के पश्चात इन कामगार पिछड़ेवर्ग की जातियों को अपने समाज में स्वीकार करने की कोशिश की, क्योंकि
(अ) आर्यों को इनकी आवश्यकता थी क्योंकि आर्यों के पास कामगार नहीं थे।
(ब) आर्य युद्ध, कृषि तथा पशु पालन के सिवाय अन्य किसी विद्या में निपुण नहीं थे।
(स) आर्य इनका उपयोग आसानी से कर पाते थे, क्योंकि ये जातियां आर्यों का विरोध नहीं करती थीं चूंकि ये कामगार जातियां लड़ाकू न थीं।
(द) दूसरे अन्य राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी असुर, डोम, चांडाल जैसी अनार्य जातियां जो आर्यों का विरोध करती थीं आर्यों द्वारा कोपभाजन का शिकार बनीं तथा अछूत करार दी गईं।
3. चूंकि कामगार अनार्य जाति शूद्रों में गिनी जाने लगीं। इसलिए सूर्यवंशी अनार्य क्षत्रिय जातियों के साथ मिलकर शूद्रों में शामिल हो गई। (पृष्ठ-31-32)
अभी तक यह अवधारणा थी कि शूद्र केवल शूद्र हैं, किंतु आर्यों ने शूद्रों को भी दो भागों में विभाजित किया हुआ था। एक अबहिष्कृत शूद्र, दूसरा बहिष्कृत शूद्र। पहले वर्ग में खेतिहर, पशुपालक, दस्तकारी, तेल निकालने वाले, बढ़ई, पीतल, सोना-चांदी के जेवर बनाने वाले, शिल्प, वस्त्र बुनाई, छपाई आदि का काम करने वाली जातियां थीं। इन्होंने आर्यों की दासता आसानी से स्वीकार कर ली। जबकि बहिष्कृत शूद्रों में वे जातियां थीं, जिन्होंने आर्यों के सामने आसानी से घुटने नहीं टेके। विद्वान ऐसा मानते हैं कि ये अनार्यों में शासक जातियों के रूप में थीं। आर्यों के साथ हुए संघर्ष में पराजित हुईं। इन्हें बहिष्कृत शूद्र जाति के रूप में स्वीकार किया गया। इन्हें ही आज अछूत (अतिशूद्र) जातियों में गिना जाता है।

जिस तरह शूद्रों को दो वर्गों में बांटा गया है। संजीव ने कामगार पिछड़े वर्ग(शूद्र) को भी दो भागों में बांटा है—(1) उत्पादक जातियां (2) गैर उत्पादक जातियां। किंतु पिछड़े वर्ग में जिन जातियों को सम्मिलित किया गया है उसमें भले ही अतिशूद्र (बहुत ज्यादा अछूत) जातियों का समावेश न हो किंतु उत्पादक व गैर उत्पादक दोनों तरह की जातियों को पिछड़ा वर्ग माना गया है। चौथे अध्याय (जाति की पड़ताल एवं समाधान) में पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित जातियों की जो आधिकारिक सूची दी है। उसमें भी यही तथ्य है। जैसे लोहार, बढ़ई, सुनार, ठठेरा, तेली (साहू) छीपा आदि यह उत्पादक कामगार जातियां हैं। जबकि बैरागी (वैष्णव) (धार्मिक भिक्षावृत्ति करने वाली) भाट, चारण (राजा के सम्मान में विरुदावली का गायन करने वाली) जैसी बहुत-सी गैर जातियां हैं। पिछड़े वर्ग में उन जातियों को भी सम्मिलित किया गया है। जो हिंदूधर्म में अनुसूचित जाति के तहत आती होंगी। किंतु बाद में उन्होंने ईसाई तथा मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया; लेकिन धर्मांतरण के बाद भी उनका काम वही परंपरागत रहा। जैसे शेख मेहतर (सफाई कामगार) आदि।

पिछड़े वर्ग की पहचान के बाद भी वह दूसरे अध्याय—'जाति एवं गोत्र विवाद तथा हिंदूकरण' में पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति के बारे में स्मृतियों, पुराणों के मत क्या हैं, उसे पाठकों के सामने रखते हैं। क्योंकि पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां अपने को क्षत्रिय और ब्राह्मण होने का दावा करती रही हैं। लेखक ने उसके कुछ उदाहरण भी दिए हैं किंतु हम भी लोकजीवन में कई ऐसी जातियों को जानने लगे हैं, जिनका कार्य धार्मिक भिक्षावृत्ति या ग्रह विशेष का दान ग्रहण करना रहा है। सीधे तौर पर अपने आप को ब्राह्मण बतलाती हैं तथा शर्मा जैसे सरनेम ग्रहण कर चुकी हैं। आज वे पिछड़े वर्ग की आधिकारिक सूची में दर्ज हैं। जबकि हिंदू स्मृतियां उन्हें वर्णसंकर घोषित करती हैं और इन्हीं वर्ण संकर संतति से विभिन्न निम्न जातियों का उद्भव हुआ बताती हैं।

पिछड़े वर्ग की जो जातियां स्वयं को क्षत्रिय या ब्राह्मण होने का दावा करती हैं, लेखक ने उनमें मराठा, सूद और भूमिहार के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। किंतु उच्च जातियों ने इनके दावों को कभी भी स्वीकार नहीं किया। यहां शिवाजी का उदाहरण ही पर्याप्त होगा। मुगलकाल में मराठा जाति के शिवाजी ने अपनी वीरता से जब पश्चिमी महाराष्ट्र के कई राज्यों को जीत कर उन पर अपना अधिकार जमा लिया और राज तिलक कराने की सोची तब ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक कराने से इंकार कर दिया तथा तर्क दिया कि वह शूद्र हैं। इस अध्याय में गोत्र क्या है? तथा अनार्य वर्ग के देव-महादेव का कैसे हिंदूकरण करके बिना धर्मांतरण के अनार्यों को हिंदू धर्म की परिधि में लाया गया की विद्वतापूर्ण विवेचना की गई है। इस में बुद्ध के क्षत्रिय होने का जो मिथक अब तक बना हुआ था, वह भी टूटा है और यह वास्तविकता सामने आई कि वे शाक्य थे। और शाक्य भारत में एक हमलावर के रूप में आए। बाद में ये जाति भारतीयों के साथ मिल गई और यह जाति शूद्रों में शुमार होती थी। (देखें पृष्ठ-71-72)

अध्याय-तीन विकास यात्रा के विभिन्न सोपान में लेखक ने उच्च वर्गों के आरक्षण को रेखांकित किया तथा पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की पृष्ठभूमि को भी वर्णित करते हुए लिखा है कि—"जब हमारा संविधान बन रहा था तो हमारे पास इतना समय नहीं था कि दलित वर्गों में आने वाली सभी जातियों की शिनाख्त की जा सकती और उन्हें सूचीबद्ध किया जाता। अन्य दलित जातियों (पिछड़ा वर्ग की जातियां) की पहचान और उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए संविधान में एक आयोग बनाने की व्यवस्था की गई। उसी के अनुसरण में 29 जनवरी 1953 में काका कालेलकर आयोग बनाया गया। यह प्रथम पिछड़े वर्ग आयोग का गठन था। किंतु इस आयोग ने इन जातियों की भलाई की अनुशंसा करने के बजाए ब्राह्मणवादी मानसिकता प्रकट की जिससे पिछड़ों का आरक्षण खटाई में पड़ गया। बाद में 1978 में मंडल आयोग बना जिसे लागू करने का श्रेय वी.पी.सिंह को गया।'' संजीव ने पिछड़ेवर्ग को आरक्षण देने के विषय और उसके विरोध की व्यापक चर्चा की है।
लेखक कई ऐसे प्रश्न खड़े करते हैं जिनका उत्तर जात्याभिमानी लोगों को देना कठिन है। इस अनुपम कृति के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं।

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Sunday, October 3, 2010

पिछड़े वर्ग की जांच पड़ताल

देशबंधु न्यूज पेपर दिनांक १७ अगस्त २०१०
पुस्तक समीक्षा
पिछड़े वर्ग की जांच पड़ताल
जीवेश प्रभाकर
भारतीय समाज आज भी छोटे-छोटे जातीय समुदायों में बटां हुआ है। वर्तमान परिस्थितियों में यह लगातार जातियों के दीर्घ समुच्चयों से छिटककर अनेक उपजातियों के लघु समुच्चयों में बंटता जा रहा है। किसी भी समाज का अध्ययन निश्चित रूप से उनके उत्थान के उद्धेश्य से ही किया जाता है। प्राचीन काल से ही भारत में जातिगत व्यवस्था को लेकर अनेक प्रश्न खड़े होते रहे है या किए जाते रहे है। इतिहासकारों एवं विद्वानों में वर्ण व्यवस्था को लेकर प्राचीन काल से ही विवाद एवं संघर्ष की स्थिति बनी रही, यहां तक कि वर्णो के वर्गीकरण क प्रक्रिया भी समानान्तर रूप से चलती रही। कहा जाता है कि इतिहास हमारे दिमाग में होता है जो वर्तमान परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप भविष्य के लिए लिखा जाता है। भारत में स्वतंत्रता के पूर्व से ही समाज के पिछड़े वर्ग का वर्गीकरण प्रारंभ हुआ। इसका परिणाम वृहत्तर रूप में आंधुनिक भारत में देखने मिल रहा है। इसी पिछड़ा वर्ग में बढ़ती वर्णेत्तरीकरण की प्रक्रिया और पिछड़े वर्ग की उत्पत्ती से लेकर वर्तमान स्थिति को रेखांकित करती है संजीव खुदशाह की पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग``। जैसा कि पुस्तक के उपशीर्षक से स्पष्ट रूप से कहा गया है (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकाताएं) उसी के अनुरूप यह पुस्तक चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की मीमांसा करती है।
लेखक ने अपनी प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से  स्वीकार किया है कि यह एक शोध प्रबंध है। शोध प्रकल्प के रूप में लेखक ने काफी संदर्भ सामग्री एकत्रित की है। इन संदर्भो में वेद, स्मृति ग्रंथो से लेकर आधुनिक इतिहासकारों एवं विचारकों के उद्धहरण व मान्यताएं शामिल है।
मुख्य रूप से चार अध्याय में पिछड़े वर्ग की स्थिति की पड़ताल करती इस पुस्तक का प्रथम अध्याय पिछड़े वर्ग की उत्पत्ति और इस वर्ग के वर्गीकरण पर है। प्रथम अध्याय में मानव की उत्पत्ति पर विभिन्न धार्मिक व वैज्ञानिक मान्यताओं की चर्चा है असमें हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था के प्रारंभीक सोपान का उल्लेख है। डॉ. अम्बेडकर द्वारा प्रतिस्थापित सिर्फ तीन वर्ण को मान्यता देते हुए लेखक संपूर्ण पिछड़े वर्ग को चौथे वर्ण में शामिल करता है। इस मान्यता को आगे बढ़ाते हुए प्रथम अध्याय में चौथे वर्ण में कार्य के आधार पर उत्पादक व अनुत्पादक जातियों के रूप में चौथे वर्ण का वर्गीकरण किया गया है एवं उनके उत्पादक मूल्य के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था में उन्हे पृश्य या अस्पृश्य माना गया है।
प्रारंभिक अवधारणा के पश्चात पिछड़े वर्ग में शामिल विभिन्न पिछड़ी जातियों के गोत्र को लेकर मान्यताओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। मनुस्मृति व्दारा निर्धारित विभिन्न वर्णो के अन्तरसंबंधों से उत्पन्न संकर जातियों की विस्तृत सारणी दी गई है। रक्त मिश्रण के कारण एवं इसके उत्पादों के वर्ण व वर्ग निर्धारण की पौराणिक मान्यताओं का विस्तार से अध्ययन कर उसकी पड़ताल की गई है जो काफी रोचक व जानकारीपूर्ण है। इसके साथ ही वर्तमान में शक्तिशाली और संपन्न जातियों कायस्थ, मराठा एवं कुछ अन्य पिछड़ी जातियों व्दारा स्वयं को गोत्र के आधार पर उच्च वर्ण में शामिल किए जाने की अवधारणा पर प्रश्न खड़े किए है। इस अध्याय में सदर्भो का हवाला देते हुए लोक मान्य देवी देवताओं को सवर्णो द्वारा स्वीकार किए जाने के पीछे नीहित स्वार्थ व समाज पर उच्चवर्ण का दबदवा बनाए रखने की साजिश पर प्रकाश डाला गया है।
उपलब्ध गजट एवं अभिलेखों के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अंग्रजों द्वारा अपनी सुविधा हेतु पहली बार जातीय आधार पर भारत की जनगणना करवाई गई। दरअसल १८५७ के संग्राम के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी के स्थान पर भारत जब सीधे ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन हुआ तो प्रशासनिक व्यवस्था अपने अनुरूप करने के उद्धेश्य से अंग्रेजों ने भारतीय समाज को जातीय आधार पर वर्गीकृत कर दस्तावेजीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ की। इस दौर में शासक की निगाह में उच्च स्थान प्राप्त करने के उद्धेश्य से सवर्णो के साथ साथ पिछड़े वर्गो में भी जातिय अस्मिता और प्रतिष्ठा के गौरव गान की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। लेखक ने अपने शोध में यह बताया है कि पौराणिक काल में लगातार पिछड़े वर्ग को दलित पतित रखने की कोशिशों को अंग्रेजो ने विराम लगाया और मानव को मानव समझते हुए भारतीय समाज को समतामूलक बनाने की दिशा में सार्थक पहल प्रारंभ की। हालांकि इस पर कुछ विद्वानों की राय यह भी है कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक बंटवारे के साथ-साथ समाज को जातिय आधार पर बांटने पर यह कुत्सित प्रयास था। इस संदर्भ में लेखक ने डॉ. अम्बेडकर व महात्मा गांधी के पूना पैक्ट का भी जिक्र किया है। पूना पैक्ट आज भी कई दलित, पिछड़े वर्ग एवं कई सामान्य वर्ग के विचारकों की निगाह में पिछड़ो की हार माना जाता है जबकि वृहत्तर रूप से पूना पैक्ट हिन्दोस्तान को जातीय आधार पर बंटवारे से बचाने की दिशा में उठाया गया महत्पूण कदम करार दिया जाता है। आधुनिक संदर्भ में यह दुखद है कि एक बार फिर जातीय अस्मिता को वर्तमान सत्ताधारियों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है।
संजीव खुदशाह अपनी पुस्तक के इस अध्याय में आरक्षण व्यवस्था की पड़ताल करते हुए विभिन्न जातियों की अधीकृत सूची के साथ ही इस सूची में शामिल होने आतुर जातियों की चर्चा भी करते है। यहां लेखक १९३१ में अंग्रेजों द्वारार जातीय आधार पर करवाई गई जनगणना के आंकड़े नही उद्धत करते जो पुस्तक को और मजबूती प्रदान करते है। जबकि प्रथम अध्याय में अंग्रेजों द्वारा १८७२ में करवाए गए जातीय दस्तावेजों का उल्लेख किया गया है। दरअसल यह बात काबिले गौर हे कि ये आयोग स्वतंत्र भारत में गाठित किए गए जो कि आधुनिक भारत के निर्माण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे है। इस प्रक्रिया में समाज का लगभग हर पिछड़ा तबका अपनी उन्नति और प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि अगड़ी जाति के कई संवेदनशील लोग भी इस आंदोलन में पिछड़े वर्ग के साथ है। लेखक की किताब भी उन्ही लोगों को समर्पित है जो भारतीय समाज में मनुष्यों को समान दर्जा दिलाए जाने के लिए संघर्षरत है। यह समर्पण उनकी मंशा व मानसिकता को पाठकों के सामने उद्धाटित करता है।
भारतीय समाज के पिछड़े वर्ग में राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं का आगाज गुलामी के दौर में ही दक्षिण में हो चुका था मगर उत्तर भारत में लम्बे समय तक कांग्रेस राजनैतिक क्षेत्र में पिछड़े वर्ग की हिमायती के रूप में अपना स्थान बनाए रखीं । मण्डल अयोग के गठन एवं उसकी सिफारिशों के पश्चात कांशीराम ने उन सिफारिशों के क्रियान्वयन हेतु पिछड़े वर्ग को संगठित कर नए समीकरण की शुरूवात की। इस पुस्तक में इस जागृति और आंदोलन पर भी चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि कांशीराम के उदय से भारतीय राजनीति में न सिर्फ हिन्दू बल्कि मुसलमानों के भी पिछड़े वर्ग की प्रतिष्ठा पुन:स्थापित होने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। दरअसल आदिकाल से उत्तर भारत में सामाजिक आंदोलन कभी भी व्यापक रूप से परिर्वतन कर पाने में सक्षम नहीं रहे। उत्तर भारत में राजनैतिक सत्ता ही जातीय प्रतिष्ठा या सामाजिक व्यवस्था में जातीय समीकरण के उत्थान व पतन की कारक नही रही। इस बात पर लेखक ने कुछ पिछड़ी जनजातियों की शासक व विजयी जातियों एवं समुदाय के वीर पुरूषों का जिक्र किया है।
अंतिम अध्याय में लेखक पिछड़े वर्ग में  शामिल जातियों की पड़ताल करते हुए एक बार फिर कार्य के आधार पर जातियों की व्याख्या एवं वर्गीकरण करते हुए मण्डल आयोग की सिफारिशों के अनुसार अधीकृत रूप में पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों का विस्तृत विवरण देते हैं। इस सूची में सभी धर्मो एवं समुदाय की पिछड़ी जातियों का विवरण है। इसी अध्याय में वे पिछड़े वर्ग की समस्याओं के कारणों एवं उसके समाधान की संक्षिप्त चर्चा करते है। आरक्षण के पक्ष विपक्ष में प्रश्नोत्तरी के माध्यम से चर्चा की गई है।
संजीव खुदशाह छत्तीसगढ़ के है। इस बात का उल्लेख दो कारणों से  आवश्यक सा लगता है। पहला इसलिए कि पूरी पुस्तक की भाषा बहुत सौम्य और विनय प्रधान है। स्वर कहीं भी आक्रामक या आरोपात्मक नही होते जबकि हाल के वर्षो में इस तरह का अधिकतर लेखन आक्रामक ही रहा है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण इस क्षेत्र से होने के बावजूद लेखक ने इस पिछड़े वर्ग की इस वृहत्तर शोधपरक पुस्तक में स्थानीयता की लगभग अनदेखी की गई है। हालांकि उनकी पुस्तक प्रांतीय या क्षेत्रीय सीमाओं में बांधकर नही देखी जा सकती।
आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग पुस्तक के लेखक ने बहुत परिश्रम व लगन से शोध कार्य किया है। यह पुस्तक संजीव खुदशाह की पूर्व कृति ''सफाई कामगार समुदाय`` की अगली कड़ी के रूप में सामने आई है। ''सफाई कामगार समुदाय`` काफी चर्चित पुस्तक रही है। यह पुस्तक उसी श्रंखला को आगे बढ़ाते हुए पिछड़े वर्ग की वर्तमान स्थिति को उजागर करती है। लेखक ने सभी वर्ण व वर्ग की व्याख्या में पूरी तटस्थता बरती हैं। उनकी खोजपूर्ण पुस्तक में हालांकि सभी तथ्यों एवं उद्धहरण को शामिल किया जा पाना संभव नही हो सकता फिर भी यह एक गंभीर विमर्श की मगर पठनीय पुस्तक है। प्रथम कृति ''सफाई कामगार समुदाय`` के पश्चात लेखक संजीव खुदशाह की ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` लम्बे समय के अंतराल के पश्चात आई है मगर इस पुस्तक के लिए की गई मेहनत के परिणामस्वरूप शोधार्थियों के साथ ही आम पाठकों के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।
 जीवेश प्रभाकर
रोहिणीपुरम-२
डगनीया रायपुर छत्तीसगढ़
492001
मो. 09425506574